।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
      चैत्र कृष्ण दशमी, वि.सं.-२०७८, रविवार

संसारका आश्रय कैसे छूटे ?


हम भगवान्‌के आश्रित हो जायँ अथवा संसारका आश्रय छोड़ देंदोनोंका एक ही अर्थ होता है । संसारका आश्रय सर्वथा छूट जानेसे भगवान्‌का आश्रय स्वत: प्राप्त हो जाता है और भगवान्‌के सर्वथा आश्रित हो जानेसे संसारका आश्रय स्वत: छूट जाता है । इन दोनोंमेंसे किसी एककी मुख्यता रखकर चलें अथवा दोनोंको साथ रखते हुए चलें, एक ही अवस्था हो जाती है अर्थात् कल्याण हो जाता है ।

भगवान्‌के आश्रित होनेमें संसारका आश्रय ही खास बाधक है । संसारका आश्रय न छूटनेमें खास कारण हैसंयोगजन्य सुखकी आसक्ति । संयोगजन्य सुखमें मनका जो खिंचाव है, प्रियता है, यही संसारके आश्रयकी, संसारके सम्बन्धकी खास जड़ है । यह जड़ कट जाय तो संसारका आश्रय छूट जायगा । परन्तु भीतरसे संयोगजन्य सुखकी लोलुपता रहते हुए बाहरसे चाहे सम्बन्ध छोड़ दो, साधु भी बन जाओ, पैसा भी छोड़ दो, पदार्थ भी छोड़ दो, गाँव छोड़कर जंगलोंमें चले जाओ, तो भी संसारका आश्रय छूटेगा नहीं ।

संयोगजन्य सुख आठ प्रकारका हैशब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, मान (शरीरका आदर-सत्कार), बड़ाई (नामकी प्रशंसा) और आराम । ये आठ प्रकारके संयोगजन्य सुख ही मूल बाधाएँ हैं । जबतक इन सुखोंमें आकर्षण है, प्रियता है, ये अच्छे लगते हैं, तबतक संसारका आश्रय छूटता नहीं । अगर केवल भगवान्‌का ही आश्रय ले लिया जाय तो संसारका आश्रय छूट जायगा । संयोगजन्य सुखका बड़ा भारी आकर्षण है । पर वह कब छूटेगा ? जब मनुष्य केवल भगवान्‌का आश्रय लेकर भगवान्‌के भजन-स्मरणमें लीन होगा । भगवान्‌के भजन-स्मरणमें लीन होनेसे जब पारमार्थिक सुख मिलने लगेगा, तब संयोगजन्य सुख सुगमतासे, सरलतासे छूट जायगा । उस पारमार्थिक सुखमें इतनी विलक्षणता, अलौकिकता है कि उसके सामने संसारके सब सुख नगण्य हैं, तुच्छ हैं, कुछ नहीं हैं । जब वह पारमार्थिक सुख मिलने लगेगा, तब संसारके सुख फीके पड़ जायँगे, स्वत:-स्वाभाविक तुच्छ लगने लगेंगे । अतः उस पारमार्थिक सुखको, आनन्दको ही लेना चाहिये । उसको लेनेके दो तरीके हैं चाहे भावना (भक्ति)-से ले लो और चाहे विवेक (ज्ञान)-से ले लो । भावनासे ऐसे लो कि भगवान्‌ हैं, वे मेरे हैं और मैं उनका हूँ

मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई रे ।

भगवान्‌को अपना माननेके साथ-साथ दूसरो न कोईयह मानना जरूरी है । परन्तु होता यह है कि संसारमें अपनापन रखते हुए भगवान्‌में अपनापन करते हैं । वास्तवमें संसारके साथ अपनापन रहता नहींयह निश्चित बात है । जन्मसे पहले जिस कुटुम्बके साथ अपनापन था, आज उस कुटुम्बकी याद ही नहीं है । इसी प्रकार आज जिस कुटुम्बके साथ, जिन रुपयोंके साथ, जिन भोगोंके साथ हमारा अपनापन है, वे भविष्यमें यादतक नहीं रहेंगे, सम्बन्ध तो क्या रहेगा ? अतः जो रहेगा ही नहीं, उसको छोड़नेमें क्या जोर आता है ? जो रहनेवाला हो, उसको यदि छोड़नेके लिये कहा जाय, तब तो कुछ कठिनता भी मालूम देगी कि रहनेवाली चीजको कैसे छोड़ दें ! पर संसार तो छूटेगा ही और छूटता ही चला जा रहा है; अतः उसको छोड़नेमें कठिनता कैसी ? केवल मूर्खताके कारण ही हमने उसको पकड़ रखा है ।