सनातनधर्ममें जितने साधन कहे गये हैं,
नियम कहे गये हैं, वे भी सभी सनातन हैं, अनादिकालसे चलते आ रहे हैं । जैसे भगवान्ने कर्मयोगको अव्यय
कहा है‒‘इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्’ (४ । १)
तथा शुक्ल और कृष्ण गतियों (मार्गों)-को भी सनातन कहा है‒‘शुक्लकृष्णे
गती ह्येते जगतः शाश्वते मते’ (८ । २६) । गीताने परमात्माको भी सनातन कहा है‒‘सनातनस्त्वम्’
(११ । १८), जीवात्माको भी सनातन कहा है‒‘जीवभूतः सनातनः’ (१५ ।
७), धर्मको भी सनातन कहा है‒‘शाश्वतस्य च धर्मस्य’
(१४ ।
२७), परमात्माके पदको भी सनातन
कहा है‒‘शाश्वतं पदमव्ययम्’ (१८ । ५६) । तात्पर्य है कि सनातनधर्ममें सभी चीजें सनातन
हैं,
अनादिकालसे हैं । सभी धर्मोंमें और उनके नियमोंमें एकता कभी
नहीं हो सकती, उनमें ऊपरसे भिन्नता रहेगी ही । परन्तु उनके द्वारा प्राप्त किये जानेवाले तत्त्वमें
कभी भिन्नता नहीं हो सकती । पहुँचे पहुँचे
एक मत, अनपहुँचे मत और । संतदास
घड़ी अरठकी, ढुरे एक ही ठौर ॥ जब लगि
काची खीचड़ी, तब लगि खदबद होय । संतदास सीज्यां पछे, खदबद
करै न कोय ॥ जबतक साधन करनेवालोंका संसारके साथ सम्बन्ध रहता
है, तबतक
मतभेद, वाद-विवाद
रहता है । परन्तु तत्त्वकी प्राप्ति होनेपर तत्त्वभेद नहीं रहता ।
जो मतवादी केवल अपनी टोली बनानेमें ही लगे रहते है,
उनमें तत्त्वकी सच्ची जिज्ञासा नहीं होती और टोली बनानेसे उनकी
कोई महत्ता बढ़ती भी नहीं । टोली बनानेवाले व्यक्ति सभी धर्मोंमें
हैं । वे धर्मके नामपर अपने व्यक्तित्वकी ही पूजा करते और करवाते हैं । परन्तु जिनमें
तत्त्वकी सच्ची जिज्ञासा होती है, वे टोली नहीं बनाते । वे तो तत्त्वकी खोज करते है
। गीताने भी टोलियोंको मुख्यता
नहीं दी है, प्रत्युत जीवके कल्याणको मुख्यता दी है । गीताके अनुसार किसी भी धर्मपर विश्वास
करनेवाला व्यक्ति निष्कामभावपूर्वक अपने कर्तव्यका पालन करके अपना कल्याण कर सकता है
। गीता सनातनधर्मको आदर देते हुए भी किसी धर्मका आग्रह नहीं
रखती और किसी धर्मका विरोध भी नही करती । अतः गीता सार्वभौम ग्रन्थ है । |