जो अनन्यभावसे भगवान्की उपासनामें लग जाते हैं,
उनको भगवान् अप्राप्तकी प्राप्ति करा देते हैं (९ । २२), चाहे
वह प्राप्ति लौकिक हो अथवा पारलौकिक । लौकिक प्राप्तिमें भगवान् उनके शरीर तथा कुटुम्ब-परिवारके
निर्वाहका प्रबन्ध करा देते हैं, उनकी तथा उनके कुटुम्बकी रक्षा करते हैं । परन्तु इसमें एक विलक्षण बात है कि जिनकी प्राप्ति करा देनेसे उनका हित होता
हो, वे संसारमें न फँसते हों, उन चीजोंकी प्राप्ति तो भगवान्
करा देते हैं; पर जिनकी प्राप्ति करा देनेसे उनका हित न होता हो, वे
संसारमें फँसते हों, उन चीजोंकी प्राप्ति भगवान् नहीं कराते । जैसे, नारदजीके मनमें विवाह करनेकी आयी तो भगवान्ने उनका विवाह नहीं
होने दिया; क्योंकि इसमें उनका हित नहीं था । अगर लौकिक प्राप्ति करानेसे उनका पतन न होता
हो तो उनकी लौकिक चाहना न होनेपर भी भगवान् लौकिक प्राप्ति करा देते हैं । जैसे, ध्रुवजीने पहले सकामभावसे भगवान्की उपासना की । उस उपासनासे
उनके मनका सकामभाव मिट गया, तो भी भगवान्ने उनको छत्तीस हजार वर्षके लिये राज्य दे दिया
तथा ध्रुवलोक बना दिया । तात्पर्य है कि उनको अलौकिक (पारलौकिक) चीज तो भगवान् देते
ही हैं,
पर लौकिक चीजसे उनका भला होता हो तो लौकिक चीजकी प्राप्ति भी
भगवान् करा देते हैं । जो भक्त भक्तिभावसे पत्र,
पुष्प, फल, जल आदिको भगवान्के अर्पण कर देता है,
उसको भगवान् खा लेते हैं, यह विचार नहीं करते कि यह फल है या फूल अथवा पत्ता (९ । २६)
! उदारभावके कारण भगवान् भक्तके भावमें कितने बह जाते हैं
! इतना ही नही, भक्तोंके भावमें बहकर भगवान् अपनी बिक्री भी कर
देते हैं‒ तुलसीदलमात्रेण जलस्य चुलुकेन वा । विक्रीणीते स्वमात्मानं भक्तेभ्यो भक्तवत्सलः ॥ ‒यह
भगवान्की उदारताकी हद हो गयी ! संसारके पद, अधिकार आदि सबको समानरूपसे नहीं मिलते,
प्रत्युत योग्यता आदिके अनुसार ही मिलते हैं । परन्तु भगवान्ने
अपनी प्राप्तिके लिये इतनी उदारता कर रखी है कि पापी-से-पापी,
दुराचारी-से-दुराचारी मनुष्य भी भगवान्का भजन कर सकता है,
भगवान्को अपना मान सकता है, भगवान्की तरफ चल सकता है, भगवान्को प्राप्त कर सकता है । (९ । ३०-३१) । जो केवल भगवान्के भजनमें ही मस्त रहते हैं,
भगवान्की लीला आदिमें ही रमण करते हैं,
उनकी कोई इच्छा न होनेपर भी भगवान् अपनी तरफसे उनको वह ज्ञान
देते हैं,
जो ज्ञान जिज्ञासुओंको भी बड़ी कठिनतासे मिलता है (१० । ११) ।
यह भगवान्की कितनी उदारता है !
गीतामें अर्जुन भगवान्से थोड़ी बात पूछते हैं,
तो भगवान् उसका विस्तारसे उत्तर देते हैं अर्थात् अर्जुनके
प्रश्नका उत्तर तो देते ही हैं, पर अपनी ओरसे और भी बातें बता देते हैं । अर्जुनने भगवान्से
प्रार्थना की कि हे भगवन् ! मैं आपका अविनाशी रूप देखना चाहता हूँ (११ । ३), तो भगवान्ने
देवरूप,
उग्ररूप, अत्युग्ररूप आदि अनेक स्तरोंसे अपना अक्षय-अविनाशी विश्वरूप
दिखा दिया । अगर अर्जुन भगवान्के विश्वरूपको देखकर भयभीत नहीं होते तो भगवान् न जाने
अपने कितने रूप दिखाते चले जाते ! यह भगवान्की कितनी उदारता है ! |