निर्गुण उपासना करनेवाले तो पराभक्तिसे भगवान्को तत्त्वसे जानकर
भगवान्में प्रविष्ट होते हैं (१८ । ५५); परन्तु जो सगुण उपासना करनेवाले है, उन
भक्तोंको भगवान् ज्ञान भी देते हैं, दर्शन भी देते हैं और अपनी प्राप्ति भी करा देते
हैं (११ । ५४) । भगवान्में आविष्ट चित्तवाले भक्तोंका भगवान् स्वयं संसार-सागरसे
शीघ्र उद्धार करनेवाले बन जाते हैं (१२ । ७) । यह भगवान्की भक्तोंके प्रति कितनी उदारता
है ! जो अविनाशी शाश्वत पद लम्बे समयतक एकान्तमें रहकर धारणा-ध्यान-समाधि
करनेसे प्राप्त होता है, वही पद भक्त सांसारिक सब काम करता हुआ भी भगवान्की कृपासे अनायास
ही पा लेता है (१८ । ५१‒५६) । जो केवल भगवान्के शरण हो जाता
है, उसको भगवान् सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर देते हैं, (१८
। ६६) । यह भगवान्की कितनी उदारता है ! जो भगवद्भक्तोंमें गीताका प्रचार करता है, वह
भगवान्को ही प्राप्त होता है । उसके समान भगवान्को और कोई प्यारा नहीं है । अगर कोई
प्रचार नहीं कर सकता, पर गीताका अध्ययन,
पठन-पाठन करता है,
उसके द्वारा भगवान् ज्ञानयज्ञसे पूजित होते हैं
। जो गीताका अध्ययन भी नहीं कर सकता, केवल दोषदृष्टि-रहित होकर श्रद्धापूर्वक गीताका श्रवण
करता है, वह
भी शरीर छूटनेके बाद भगवद्धाममें चला जाता है (१८ । ६८‒७१) । भगवान्की इस उदारताको
क्या कहा जाय ? कोई भगवान्को माने चाहे न माने,
भगवान्का मण्डन करे चाहे खण्डन करे,
भगवान्का त्रिलोकीसे अस्तित्व ही उठा देना चाहे,
तो भी भगवान्की बनायी हुई पृथ्वी सबको समानरूपसे आश्रय देती
है । पृथ्वीपर सभी बैठते हैं, चलते हैं, टट्टी करते हैं, पेशाब करते हैं, लातों आदिसे मारते हैं, तो भी पृथ्वी उनकी गलतियोंकी तरफ ख्याल नहीं करती । भगवान्के
बनाये हुए जलमें कोई स्नान करे, कपड़े धोए, आचमन करे अथवा कुल्ला करे,
तो भी जल समानरीतिसे सबकी प्यास मिटाता है । भगवान्की बनायी
हुई अग्नि सबको समानरीतिसे प्रकाश देती है, प्राणियोंके द्वारा खाये हुए चार प्रकारके अन्नको पचाती है,
प्रकाश देकर सबका भय दूर करती है । भगवान्की बनायी हुई वायु
सबको समानरूपसे श्वास लेने देती है, जीने देती है, सबको समानरीतिसे बल देती है । भगवान्का बनाया हुआ आकाश सबको
समानरूपसे अवकाश देता है, दसों दिशाओंमें सबको समानरूपसे फलने-फूलने और बढ़नेके लिये अवकाश
देता है । इस प्रकार जिसकी बनायी हुई चीजें भी इतनी उदार
हैं, वह खुद कितना उदार होगा ! कोई अपने घरमें नगरपालिकाके जलकी टोंटी लगाता है तो उसका टैक्स
देना पड़ता है, पर भगवान्ने कई नदियाँ बना दी हैं, जिनका कोई टैक्स नहीं देना पड़ता । ऐसे ही कोई अपने घरमें बिजलीका
तार लेता है तो उसका टैक्स देना पड़ता है, पर भगवान्ने सूर्य, चन्द्र, अग्नि आदि बना दिये हैं, जिनका कोई टैक्स नहीं देना पड़ता । सभी मुफ्तमें प्रकाश पाते
हैं । यह भगवान्की असीम उदारता नहीं तो और क्या है ? भगवान्ने मनुष्यको शरीरादि वस्तुएँ इतनी उदारतापूर्वक
और इस ढंगसे दी हैं कि मनुष्यको ये वस्तुएँ अपनी ही दीखने लगती हैं । इन वस्तुओंको
अपनी ही मान लेना भगवान्की उदारताका दुरुपयोग करना है । भगवान्में यह बात है ही नहीं कि मनुष्य मेरेको माने, तभी
उसका उद्धार होगा । यह भगवान्की बड़ी भारी उदारता है ! मनुष्य भगवान्को माने या न माने,
इसमें भगवान्का कोई आग्रह नहीं है । परन्तु उसको भगवान्के
विधानका पालन जरूर करना चाहिये, इसमें भगवान्का आग्रह है; क्योंकि अगर वह भगवान्के विधानका पालन नहीं करेगा तो उसका पतन
हो जायगा (३ । ३२) । अतः मनुष्य अगर विधाता (भगवान्)-को न मानकर केवल विधानको माने
तो भी उसका कल्याण हो जायगा । हाँ, अगर मनुष्य विधाताको मानकर उनके विधानको मानेगा तो भगवान् उसे
अपने-आपको दे देंगे; परन्तु अगर वह विधाताको न मानकर उनके विधानको मानेगा तो भगवान्
उसका उद्धार कर देंगे । तात्पर्य है कि विधाताको माननेवालेको
प्रेमकी प्राप्ति और विधानको माननेवालेको मुक्तिकी प्राप्ति होती है । वास्तवमें देखा जाय तो विधानको मानना और विधाता (भगवान्)-को
न मानना कृतघ्नता है । कारण कि
मनुष्य जो भी साधन करता है, उसकी सिद्धि भगवत्कृपासे ही होती है । वह जो भी साधन करता है,
उसमें भगवान्का सम्बन्ध रहता ही है । संसार भगवान्का,
जीव भगवान्का, शास्त्र भगवान्के,
विधान भगवान्का‒सबमें भगवान्का ही सम्बन्ध रहता है । नारायण ! नारायण ! नारायण !
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