।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   आषाढ़ शुक्ल दशमी, वि.सं.-२०७९, शनिवार

गीतामें भगवान्‌की न्यायकारिता

और दयालुता



संसारे यो दयालुश्च न्यायकारी भवेन्न सः ।

कृष्णे दयालुता चैव  वर्तेते न्यायकारिता ॥

जहाँ न्याय किया जाता है, वहाँ दया नहीं हो सकती और जहाँ दया की जाती है, वहाँ न्याय नहीं हो सकता । कारण कि जहाँ न्याय किया जाता है, वहाँ शुभ-अशुभ कर्मोंके अनुसार पुरस्कार अथवा दण्ड दिया जाता है; और जहाँ दया की जाती है, वहाँ दोषीके अपराधको माफ कर दिया जाता है, उसको दण्ड नहीं दिया जाता । तात्पर्य है कि न्याय करना और दया करना‒ये दोनों आपसमें विरोधी हैं । ये दोनों एक जगह रह नहीं सकते । जब ऐसी ही बात है तो फिर भगवान्‌में न्यायकारिता और दयालुता‒दोनों कैसे हो सकते हैं ? परन्तु यह अड़चन वहाँ आती है, जहाँ कानून (विधान) बनानेवाला निर्दयी हो । जो दयालु हो, उसके बनाये गये कानूनमें न्याय और दया‒दोनों रहते हैं । उसके द्वारा किये गये न्यायमें भी दयालुता रहती है और उसके द्वारा की गयी दयामें भी न्यायकारिता रहती है । भगवान्‌ सम्पूर्ण प्राणियोंके सुहृद् हैं‒‘सुहृद्ं सर्वभूतानाम्’ (५ । २९); अतः उनके बनाये हुए विधानमें दयालुता और न्यायकारिता‒दोनों रहती हैं ।

भगवान्‌ने गीतामें कहा है कि मनुष्य अन्तसमयमें जिस-जिस भावका स्मरण करता हुआ शरीर छोड़ता है, वह उसी भावको प्राप्त होता है अर्थात् अन्तिम स्मरणके अनुसार ही उसकी गति होती है (८ । ६) । यह भगवान्‌का न्याय है, जिसमें कोई पक्षपात नहीं है । इस न्यायमें भी भगवान्‌की दया भरी हुई है । जैसे, अन्तसमयमें अगर कोई कुत्तेका स्मरण करता हुआ शरीर छोड़ता है तो वह कुत्ते‌‍की योनिको प्राप्त हो जाता है अगर कोई भगवान्‌का स्मरण करता हुआ शरीर छोड़ता है तो वह भगवान्‌को प्राप्त हो जाता है । तात्पर्य है कि जितने मूल्यमें कुत्तेकी योनि मिलती है, उतने ही मूल्यमें भगवान्‌की प्राप्ति हो जाती है ! इस प्रकार भगवान्‌के कानूनमें न्यायकारिता होते हुए भी महती दयालुता भरी हुई है ।

सदाचारी-से-सदाचारी साधनपरायण मनुष्य अन्तसमयमें भगवान्‌का चिन्तन करता हुआ शरीर छोड़ता है तो उसको भगवत्प्रा‌प्ति हो जाती है, ऐसे ही दुराचारी-से-दुराचारी मनुष्य भी किसी विशेष कारणसे अन्तसमयमें भगवान्‌का स्मरण करता हुआ शरीर छोड़ता है तो उसको भी भगवत्प्राप्ति हो जाती है (८ । ५) । यह भगवान्‌की कितनी दयालुता और न्यायकारिता है !

भगवान्‌ने कहा है कि दुराचारी-से-दुराचारी मनुष्य भी अगर मेरी तरफ चलनेका दृढ़ निश्चय करके अनन्यभावसे मेरा स्मरण करता है तो उसको साधु ही मानना चाहिये । वह बहुत जल्दी धर्मात्मा बन जाता है और सदा रहनेवाली शान्तिको प्राप्त हो जाता है (९ । ३०-३१) । जब दुराचारी-से-दुराचारी मनुष्य भी भगवद्‌भक्त हो सकता है और शाश्वती शान्तिको प्राप्त हो सकता है, तो फिर भगवद्‌भक्त भी दुराचारी, पापात्मा बन सकता है और उसका भी पतन हो सकता है; परन्तु भगवान्‌का कानून ऐसा नहीं है । भगवान्‌के कानूनमें बहुत-ही दया भरी हुई है कि दुराचारीका तो कल्याण हो सकता है, पर भक्तका कभी पतन नहीं हो सकता‒‘न मे भक्तः प्रणश्यति’ (९ । ३१) । इसमें भगवान्‌की न्यायकारिता और दयालुता‒दोनों ही हैं ।