Listen योगशब्दस्य
गीतायामर्थस्तु त्रिविधो मतः । सामर्थ्ये चैव सम्बन्धे समाधौ हरिणा स्वयम् ॥ ‘योग’ नाम मिलनेका है । जो दो सजातीय तत्त्व मिल जाते हैं, तब उसका
नाम
‘योग’ हो जाता है । आयुर्वेदमें
दो ओषधियोंके परस्पर मिलनेको ‘योग’ कहा है । व्याकरणमें शब्दोंकी संधिको
‘योग’
(प्रयोग) कहा है । पातञ्जलयोगदर्शनमें
चित्तवृत्तियोंके निरोधको ‘योग’ कहा है । इस तरह ‘योग’ शब्दके अनेक अर्थ होते हैं, पर गीताका ‘योग’ विलक्षण है । गीतामें ‘योग’ शब्दके बड़े विचित्र-विचित्र अर्थ है । उनके हम तीन विभाग कर
सकते है‒ (१) ‘युजिर्
योगे’ धातुसे बना ‘योग’ शब्द जिसका अर्थ है‒समरूप परमात्माके साथ नित्य सम्बन्ध;
जैसे‒‘समत्वं योग उच्यते’
(२ ।
४८) आदि । यही अर्थ गीतामें मुख्यतासे
आया है । (२) ‘युज्
समाधौ’ धातुसे बना ‘योग’ शब्द, जिसका अर्थ है‒चित्तकी स्थिरता अर्थात् समाधिमें स्थिति; जैसे‒‘यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया’
(६ ।
२०) आदि । (३) ‘युज् संयमने’
धातुसे बना ‘योग’ शब्द, जिसका अर्थ है‒सामर्थ्य, प्रभाव;
जैसे‒‘पश्य मे योगमैश्वरम्’ (९ । ५) आदि । पातञ्जलयोगदर्शनमें चित्तवृत्तियोंके निरोधको
‘योग’
नामसे कहा गया है‒‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’ (१ । १२) और उस योगका परिणाम बताया है‒‘तदा
द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् । वृत्तिसारूप्यमितरत्र ।’ (१ । ३-४) । इस प्रकार पातंजल योगदर्शनमें योगका जो परिणाम बताया गया
है, उसीको गीतामें ‘योग’ के नामसे कहा गया है (२ । ४८; ६ । २३) । तात्पर्य है कि गीता चित्तवृत्तियोंसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेदपूर्वक
स्वतःसिद्ध सम-स्वरूपमें स्वाभाविक स्थितिको ‘योग’ कहती है । उस समतामें स्थित (नित्ययोग) होनेपर फिर कभी
उससे वियोग नहीं होता, कभी वृत्तिरूपता नहीं होती, कभी व्युत्थान नहीं होता । वृत्तियोंका
निरोध होनेपर तो ‘निर्विकल्प अवस्था’ होती है, पर समतामें स्थित होनेपर
‘निर्विकल्प बोध’
होता है । ‘निर्विकल्प बोध’ अवस्थातीत और सम्पूर्ण अवस्थाओंका प्रकाशक तथा सम्पूर्ण योगोंका
फल है । जीवका परमात्माके साथ सम्बन्ध (योग) नित्य है, जिसका कभी किसी
भी अवस्थामें, किसी भी परिस्थितिमें वियोग नहीं होता । कारण कि परमात्माका ही अंश होनेसे
इस जीवका परमात्माके साथ सम्बन्ध नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों ही रहता है । शरीर-संसारके
साथ संयोग होनेसे अर्थात् सम्बन्ध मान लेनेसे उस सम्बन्ध (नित्ययोग)-का अनुभव नहीं
होता । शरीर-संसारके साथ माने हुए संयोगका वियोग (विमुखता, सम्बन्ध-विच्छेद) होते ही
उस नित्ययोगका अनुभव हो जाता है‒‘तं विद्यात् दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्’ (६ । २३) अर्थात् दुःखोंके साथ संयोगका वियोग हो जानेका नाम ‘योग’
है[*] ।तात्पर्य है कि भूलसे शरीर-संसारके साथ माने हुए संयोगका
वियोग हो जाने और समरूप परमात्माके साथ सम्बन्धका उद्देश्य हो जाने, उसका अनुभव हो
जानेका नाम ‘योग’ है । यह योग सब समयमें है, सब देशमें है, सब वस्तुओंमें है,
सम्पूर्ण घटनाओंमें है, सम्पूर्ण क्रियाओंमें है और तो क्या कहें, इस नित्ययोगका वियोग
है ही नहीं, कभी हुआ नहीं, होगा नहीं और हो सकता ही नहीं । यही गीताका मुख्य योग है । इसी
योगकी प्राप्तिके लिये गीताने कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, ध्यानयोग, अष्टाङ्गयोग,
प्राणायाम, हठयोग आदि साधनोंका वर्णन किया है । पर इन साधनोंको
योग तभी कहा जायगा, जब असत्से सम्बन्ध-विच्छेद और परमात्माके साथ नित्य-सम्बन्धका
अनुभव होगा ।
[*] गीतामें ‘योगःकर्मसु कौशलम्’ (२ । ५०)‒ऐसा वाक्य भी आया है, पर यह वाक्य
योगकी परिभाषा नहीं है, प्रत्युत इसमें योगकी महिमा बतायी गयी है कि कर्मोंमें
योगके सिवाय और कोई महत्त्व नहीं है । |
Listen अभयादिगुणैर्युक्ता
सम्पद् देवीति कथ्यते । दम्भदर्पाभिमानादिरासुरी सम्पदा मता ॥ दैवी और आसुरी‒इन दोनों शब्दोंमें ‘देव’
नाम देवताओंका नहीं है । प्रत्युत परमात्माका है;
और ‘असुर’ नाम राक्षसोंका नहीं है प्रत्युत प्राणोंमें रमण करनेवालोंका है । गीतामें ‘देवदेव’
(१० । १५); ‘देवम्’ (११ । ११, १४); ‘देवदेवस्य’ (११ । १३); ‘देव’ (११ । १५) आदि पदोंमें परमात्माके लिये ‘देव’
शब्दका प्रयोग हुआ है । ‘आसुरं भावम्’ (७ । १५); ‘आसुरः’ (१६ । ६); ‘आसुर-निश्चयान्’ (१७ । ६) आदि पदोंमें प्राणोंमें आसक्ति रखनेवालोंके लिये ‘असुर’
शब्दका प्रयोग हुआ है । ‘देव’
अर्थात् परमात्माके जितने गुण हैं, वे सभी
‘दैवी गुण’ कहलाते हैं । ये दैवी गुण परमात्माकी
प्राप्ति करानेवाली पूंजी होनेसे ‘दैवी
सम्पत्ति’ कहलाते हैं‒‘दैवी
सम्पद्विमोक्षाय’ (१६ । ५) । साधकलोग इसी दैवी सम्पत्तिका आश्रय लेकर भगवान्का
भजन करते हैं (९ । १३) । ‘असु’
नाम प्राणोंका है । उन प्राणोंमें ही जो रमण करनेवाले हैं प्राणोंका
भरण-पोषण-रक्षण करना चाहते हैं, वे असुर कहलाते हैं; और उन असुरोंका जो स्वभाव है, उनके जो गुण हैं, वे
‘आसुरी गुण’ कहलाते हैं । ये
आसुरी गुण बार-बार जन्म-मरण देनेवाली चौरासी लाख योनियोंमें और नरकोंमें ले जानेवाली
पूंजी होनेसे ‘आसुरी सम्पत्ति’ कहलाते हैं‒‘निबन्धायासुरी मता’
(१६ ।
५) । मूढ़लोग इसी आसुरी सम्पत्तिका
आश्रय लेते हैं (९ । १२) । संसारसे विमुख होकर और दैवी सम्पत्तिका आश्रय लेकर परमात्माकी
प्राप्ति चाहनेवाले दो प्रकारके होते है‒ (१) सगुणोपासक (भक्त)‒सगुणोपासकमें श्रद्धा-विश्वासकी,
भावकी प्रधानता होती है; अतः वह ‘अभयं सत्त्वसंशुद्धिः......नातिमानिता’ (१६ ।१‒३)‒इन छब्बीस गुणोंको धारण करता है । यह साधक भगवान्को सब जगह देखकर सबसे पहले अभय
हो जाता है, फिर इसमें अमानित्व स्वतः आ जाता है । (२) निर्गुणोपासक (ज्ञानी)‒निर्गुणोपासकमें शरीर-शरीरीके विवेक-विचारकी प्रधानता होती
है;
अतः वह ‘अमानित्वमदम्भित्व......तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्’
(१३ । ७‒११)‒इन बीस गुणोंको
धारण करता है । इस साधकमें सबसे पहले अमानित्व आता है, फिर सब जगह परमात्माका अनुभव
करनेसे वह अभय हो जाता है । उपर्युक्त दोनों ही प्रकारके साधकोंमें दैवी सम्पत्ति साधनरूपसे
रहती है । सिद्ध महापुरुषोंमें यह दैवी सम्पत्ति स्वतः-स्वाभाविक रहती है । वास्तवमें
सिद्ध महापुरुष गुणोंसे अतीत होते हैं परन्तु उन्होंने पहले साधन-अवस्थामें दैवी सम्पत्तिको
लेकर साधन किया है; अतः सिद्ध होनेपर भी उनमें दैवी सम्पत्तिका स्वभाव बना हुआ रहता
है । उन सिद्धोंमेंसे सिद्ध भक्तोंके स्वाभाविक दैवी सम्पत्तिके गुणोंका वर्णन बारहवें
अध्यायके तेरहवेंसे उन्नीसवें श्लोकतक हुआ है और सिद्ध ज्ञानियोंके स्वाभाविक दैवी
सम्पतिके गुणोंका वर्णन चौदहवें अध्यायके बाईसवेंसे पचीसवें श्लोकतक हुआ है । आसुरी सम्पत्तिको धारण करनेवाले भी दो प्रकारके होते है‒ (१) सकामभावसे देवताओंकी उपासन करनेवाले‒सकामभावसे देवता आदिकी उपासना करके ब्रह्मलोकतक जानेवाले सभी
मनुष्य आसुर सम्पत्तिवाले हैं । कारण कि उनका उद्देश्य भोग भोगनेका है,
वे भोगोंमें ही आसक्त, तन्मय रहते हैं (२ । ४२-४४; ७ । २०-२३; ९ । २०-२१) । ऐसे मनुष्योंकों अन्तवाला फल ही मिलता है‒‘अन्तवत्तु
फल तेषाम्’ (७ । २३) और वे बार-बार
जन्म-मरणको प्राप्त होते हैं‒‘गतागतं कामकामा लभन्ते’ (९ ।
२१) । तात्पर्य है कि जिनका उद्देश्य सुख, आराम, भोग
भोगनेका है, नाशवान् पदार्थोंका है, वे
सभी आसुरी सम्पत्तिवाले हैं और जिनका उद्देश्य भगवान्की प्रसन्नताके लिये, लोकसंग्रहके
लिये, संसारके
हितके लिये कर्म करनेका है, वे सभी दैवी सम्पत्तिवाले हैं । (२) काम-क्रोधादिका आश्रय लेकर दुर्गुण दुराचारोंमें प्रवृत्त
होनेवाले‒जो मनुष्य काम,
क्रोध, अहंकार आदिका आश्रय लेते हैं, वे झूठ,
कपट, जालसाजी, बेईमानी, धोखेबाजी, हिंसा आदिके द्वारा दूसरोंको दुःख देते हैं । ऐसे मनुष्य पापोंके
तारतम्यसे पशु, पक्षी, कीट, पतंग, वृक्ष, लता आदि आसुरी योनियोंमें (१६ । १९) और कुम्भीपाक,
रौरव आदि नरकोंमें (१६ । १६) जाते हैं । तात्पर्य यह है कि भगवत्परायण होनेसे दैवी सम्पत्ति प्रकट होती
है, जो कि मुक्त करनेवाली है । पिण्डपोषणपरायण, भोगपरायण होनेसे और ‘नयी-नयी चीज मिलती रहे तथा मिली हुई बनी रहे’‒ऐसा भाव होनेसे आसुरी सम्पत्ति आती है,
जो कि बाँधनेवाली और पतन करनेवाली है । अतः साधकको चाहिये कि वह दैवी सम्पत्तिका आदर करते हुए आसुरी सम्पत्तिका
त्याग करता चला जाय, तो फिर अन्तमें उद्देश्यकी जरूर सिद्धि हो जायगी
।
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! |
Listen मनुष्यकी
जो कुछ इज्जत, प्रतिष्ठा है, वह सब स्वभावके कारण ही है । अगर कोई मनुष्य वर्ण, आश्रम
आदिमें ऊँचा हो, ऊँचे पदपर हो, पर उसका
स्वभाव खराब हो तो लोग अपना काम बनानेके लिये उसके सामने चुप रह सकते हैं । उससे डरते
हुए उसकी प्रशंसा कर सकते हैं, उसको आदर दे सकते हैं,
पर हृदयसे वे उसको आदर नहीं दे सकते । उनके भीतर यह बात रहती है कि ‘क्या करें, यह आदमी तो बड़ा दुष्ट है, पर अपने कामके लिये
इसकी गुलामी करनी पड़ती है !’ लोगोंके हृदयमें युधिष्टिर महाराजके प्रति बड़ा आदर है
और दुर्योधनके प्रति घृणा है तो यह स्वभावके कारण ही है । मनुष्य
स्वार्थ और अभिमानका त्याग करके दूसरोंकी सेवा करे, दूसरोंका हित चाहे तो उसका स्वभाव बहुत जल्दी सुधर सकता है । स्वभाव सुधरनेपर
वह अपना तथा दुनियाका उद्धार करनेवाला बन सकता है । जैसे आकाशमें पीपल आदि वृक्ष खूब
बढ़ जाते हैं और दूब छोटी ही रह जाती है, पर आकाशकी तरफसे किसीको
मना नहीं है, ऐसे ही मनुष्य अपना स्वभाव सुधारकर ऊँचा उठ सकता
है, इसके लिये भगवान्की तरफसे किसीको मना नहीं हैं । तात्पर्य
है कि जैसे वृक्ष आदिके लिये आकाशमें बढ़नेकी कोई सीमा नहीं है, ऐसे ही मनुष्यके लिये उन्नतिकी कोई सीमा नहीं है । मुख्यरूपसे
स्वभाव दो तरहका होता है‒समष्टि स्वभाव और व्यष्टि स्वभाव । जिसमें किसी तरहका उद्योग,
परिश्रम नहीं करना पड़ता और जिसमें स्वतः परिवर्तनरूप क्रिया होती है,
वह ‘समष्टि (प्राकृत) स्वभाव’ है । जैसे,
गरमीके दिनोंमें कभी ज्यादा गरमी पड़ती है, कभी
कम गरमी पड़ती है; कभी हवा चलती है, कभी
हवा नहीं चलती । सरदीके दिनोंमें कभी ज्यादा ठण्डी पड़ती है, कभी
कम ठण्डी पड़ती है; कभी वर्षा होती है, कभी
हवा चलती है । वर्षाके दिनोंमें कभी वर्षा ज्यादा होती है, कभी
वर्षा कम होती है:, कभी एकदम सूखा रहता है । बालक जन्मता है,
बड़ा होता है, जवान होता है, बूढ़ा होता है और मर जाता है । वृक्ष-लताएँ पैदा होती हैं, बढ़ती हैं, गिरती हैं, सूख जाती
हैं । नये मकान पुराने हो जाते हैं । यह सब समष्टि प्रकृतिका स्वभाव है । इस प्राकृत
स्वभावमें परिवर्तन किया जा सकता है; जैसे‒परमाणु बम आदिके विस्फोटसे
समष्टि प्रकृतिमें विकृति आ जाती है । व्यष्टि
स्वभाव किसी भी व्यक्तिका समान नहीं होता । किसीका शान्त स्वभाव होता है,
किसीका घोर (भयानक) स्वभाव होता है और किसीका मूढ़ (तमोगुणी) स्वभाव होता
है । जिसका शान्त स्वभाव है, वह सत्संग, सच्छास्त्र, सद्विचार आदिसे अपने शान्त स्वभावको विशेषतासे
बढ़ा सकता है । जिसका घोर स्वभाव है, वह अगर यह विचार कर ले कि
मेरेको अपना स्वभाव सुधारना है, शान्त बनाना है तो वह सत्संग,
सद्विचार आदिसे अपने स्वभावको शान्त, सौम्य बना सकता है । जिसका मूढ़
स्वभाव है, वह भी अगर अच्छा संग करे, सच्छास्त्र
पढ़े, अच्छा अभ्यास करे तो अपने स्वभावको अच्छा बना सकता है,
पर ऐसा करनेमें उसे कठिनता पड़ती है । कठिनता पड़नेपर भी वह अपना स्वभाव
बदलनेमें, स्वभावको अच्छा बनानेमें स्वतन्त्र है ।
नारायण
! नारायण ! नारायण ! |