Listen साध्यसाधनरूपाभ्यां प्रसिद्धा
रतयस्त्रिधा । आदौ साधनरूपास्ता अन्ततो यान्ति साध्यताम् ॥ एक ‘आसक्ति’ होती है और एक ‘रति’ (प्रीति) होती है । ये दोनों सर्वथा भिन्न-भिन्न हैं । आसक्तिमें
अपने सुखकी इच्छा रहती है और रतिमें अपने सुख (स्वार्थ)-का त्याग और दूसरेके हितकी
इच्छा रहती है । आसक्ति जड़ताको लेकर होती है और रति चिन्मय तत्त्वको लेकर होती है ।
आसक्तिसे पतन होता है और रतिसे कल्याण होता है । आसक्तिमें विनाशी वस्तुओंका महत्त्व
रहता है और रतिमें अविनाशी तत्त्वका महत्त्व रहता है । आसक्तिसे अवनति होती है और रतिसे
उन्नति होती है । आसक्तिमें रागका सुख होता है और रतिमें त्यागका सुख होता है । यदि
सात्त्विक सुखमें आसक्ति हो जाय तो वह भी बाँधनेवाला हो जाता है । अतः मनुष्यमें आसक्ति
नहीं होनी चाहिये, प्रत्युत रति होनी चाहिये । गीतामें कर्मयोग,
ज्ञानयोग और भक्तियोग‒तीनों ही योगोंमें आसक्तिका त्याग करनेकी
बात आयी है । जैसे‒कर्मयोगमें ‘मा
ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि’ (२ । ४७) ‘सङ्गं
त्यक्त्वाऽऽत्मशद्धये’ (५ । ११) आदि; ज्ञानयोगमें ‘असक्तिरनभिष्वङ्गः’ (१३ ।
९) ‘असक्तबुद्धिः
सर्वत्र’ (१८ । ४९) आदि;
और भक्तियोगमें ‘सङ्गं
त्यक्त्वा’ (५ । १०) ‘सङ्गवर्जितः’ (११ ।
५५) ‘सङ्गविवर्जितः’ (१२ । १८) आदि । तीनों ही योगोंमें पहले साधनमें रति होती है,
फिर वही रति अपने लक्ष्य, ध्येयमें परिणत हो जाती है;
जैसे‒ कर्मयोगीकी अपने कर्तव्य-कर्मको करनेमें रति होती है‒‘स्वे
स्वे कर्मण्यभिरतः’ (१८ । ४५), फिर वही रति अपने स्वरूपमें हो जाती है‒‘यस्त्वात्मरतिः’ (३ ।
१७) । ज्ञानयोगी सबको अपना स्वरूप समझता है । अतः पहले उसकी सम्पूर्ण
प्राणियोंके हितमें रति होती है‒‘सर्वभूतहिते रताः’
(५ । २५; १२ ।
४), फिर वही रति अपने स्वरूपमें
हो जाती है‒‘योऽन्तःसुखोऽन्तरारामः’ (५ ।
२४) । भक्तियोगीकी रति पहले भगवान्के नामजप,
कथा-कीर्तन, गुणगान आदिमें होती है‒‘रमन्ति’ (१० । ९), फिर वही रति भगवान्में हो जाती है‒‘प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः’ (७ ।
१७) । आकर्षण, खिंचाव दो प्रकारसे होता है‒एक खिंचाव परमात्माकी तरफ होता है
और एक खिंचाव संसारकी तरफ होता है । परमात्माकी तरफ जो खिंचाव होता है,
उसमें स्वयं (चेतन)-की मुख्यता होती है;
और संसारकी तरफ जो खिंचाव होता है,
उसमें इन्द्रियाँ, अन्तःकरणकी मुख्यता होती है । वास्तवमें इन दोनोंकी तरफ स्वयंका
ही खिंचाव होता है; परन्तु शरीरके साथ अपना सम्बन्ध माननेके कारण मनुष्य इन दोनों
खिंचावोंका विश्लेषण नहीं कर सकता । हाँ, जड़-चेतनके भेदका बोध होनेसे दोनों खिंचावोंका विश्लेषण हो जाता
है अर्थात् संसारका खिंचाव सर्वथा मिट जाता है और स्वयं ज्यों-का-त्यों रह जाता है
। जो खिंचाव परमात्माकी तरफ होता है,
वह रति, प्रेम, आत्मीयता है, और जो खिंचाव संसारकी तरफ होता है,
वह आसक्ति, काम, ममता है । सातवें अध्यायके पहले श्लोकमें ‘मय्यासक्तमनाः’
पदसे भगवान्में मन आसक्त होनेकी बात कही गयी है । मनकी यह आसक्ति
वास्तवमें रति (प्रेम) ही है; क्योंकि संसारमें आसक्त होनेपर तो मन संसारमें लिप्त हो जाता
है,
पर भगवान्में आसक्त होनेपर मन भगवान्में लीन हो जाता है अर्थात्
मनकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती‒ विषयान् ध्यायतश्चित्तं विषयेषु विषज्जते । मामनुस्मरतश्चित्तं मय्येव प्रविलीयते ॥
(श्रीमद्भा॰ ११ । १४ । २७) नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! |