।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
    भाद्रपद कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०७९, गुरुवार

गीतामें विविध विद्याएँ



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वासुदेवेन गीतायां मनुष्याणां हिताय  हि ।

कथिता विविधा विद्या दर्पणे तु प्रधानतः ॥

(१) शोक-निवृत्तिकी विद्या‒संसारमें दो तरहसे शोक होता है‒जो मर गये हैं, उनके लिये और जो जीते हैं, उनके लिये । इस शोकको दूर करनेके लिये भगवान्‌ने सत् और असत्‌के, शरीरी और शरीरके विवेकका वर्णन किया है । जो सत् है, अविनाशी है, अपरिवर्तनशील है, उसका कभी अभाव नहीं होता और जो असत् है, विनाशी है, परिवर्तनशील है, उसका भाव नहीं होता अर्थात् उसका अभाव ही होता है । तात्पर्य है कि इस शरीरमें रहनेवाले शरीरी (जीवात्मा)-का कभी अभाव नहीं होता । जैसे, इस शरीरमें कुमार, युवा और वृद्धावस्था होती है, पर उसमें रहनेवाला जीवात्मा वही रहता है, ऐसे ही एक शरीरको छोड़कर दूसरे शरीरकी प्राप्ति होती है, पर जीवात्मा वही रहता है, उसमें कुछ भी परिवर्तन नहीं होता । ये सभी शरीर उत्पन्‍न और नष्ट होनेवाले हैं, पर इन शरीरोंमें रहनेवालेका कोई कभी नाश कर ही नहीं सकता । असत् शरीर आदिको लेकर शोक हो ही नहीं सकता; क्योंकि वे कभी टिकते ही नहीं और शरीरोंमें रहनेवाले सत्‌को लेकर भी शोक हो नहीं सकता; क्योंकि वह कभी मिटता (मरता) ही नहीं (२ । ११३०) आदि-आदि कहकर भगवान्‌ने शोक-निवृतिकी विद्या बतायी है ।

जो साधक केवल परमात्माके ही सम्मुख है, केवल परमात्माको ही चाहता है, उसमें परमात्माकी कृपासे उनकी सम्पत्ति (दैवी सम्पत्ति) अर्थात् सद्गुण-सदाचार स्वाभाविक ही आ जाते हैं । परन्तु अपनेमें दैवी-सम्पत्तिकी कमी देखकर साधकको शोक-चिन्ता होते हैं । इसलिये भगवान्‌ कहते हैं कि साधकको अपनेमें दैवी गुणोंकी कमी देखकर शोक-चिन्ता नहीं करने चाहिये (१६ । ५) । तात्पर्य है कि साधक भगवान्‌का आश्रय लेकर दुर्गुण-दुराचारोंका त्याग करे और भगवान्‌को पुकारे, पर शोक-चिन्ता कभी न करे ।

भगवान्‌के सिवाय अन्यका आश्रय लेनेसे ही शोक होता है । कारण कि अन्य तो टिकनेवाला है ही नहीं, पर मनुष्य उसको रखना चाहता है; अतः अन्यके जानेसे अथवा जानेकी आशंकासे मनुष्यको शोक होता है । इसलिये भगवान्‌ कहते हैं कि तुम सब आश्रयोंको छोड़कर केवल मेरी शरण हो जाओ; मैं तुम्हें सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, तुम चिन्ता-शोक मत करो (१८ । ६६) ।

(२) कर्तव्य-कर्म करनेकी विद्या‒मनुष्यका कर्तव्य-कर्म करनेमें ही अधिकार है, फलकी प्राप्तिमें नहीं (२ । ४७) । कारण कि फल प्राप्त करना मनुष्यके अधीन नहीं है, प्रत्युत भगवान्‌के विधानके अधीन है । परन्तु फलका त्याग करनेमें मनुष्य सर्वथा स्वतन्त्र है, समर्थ है । अतः भगवान्‌ कहते हैं कि साधक कर्मफलका त्याग करके नैष्ठिकी शान्तिको प्राप्त होता है (५ । १२) । इसलिये मनुष्यको फलासक्तिका त्याग करके अपने कर्तव्यका पालन करना चाहिये; क्योंकि फलासक्तिरहित होकर अपने कर्तव्यका पालन करनेसे परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है (३ । १९) ।

(३) त्यागकी विद्या‒प्रत्येक कर्मका आरम्भ और अन्त होता है तथा उसके फलका भी संयोग और वियोग होता है । अतः जो कर्म और कर्मफल हमारे साथ नहीं रह सकता तथा हम उसके साथ नहीं रह सकते, ऐसे कर्मको साथमें रखनेकी और फलको प्राप्त करनेकी इच्छाका त्याग करके तत्परतापूर्वक शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्म करना चाहिये (१८ । ९) ।

(४) पाप न लगनेकी विद्या‒जय-पराजय, लाभ-हानि, सुख-दुःख आदिमें समता रखकर अपने कर्तव्यका आचरण किया जाय तो पाप नहीं लगता (२ ।३८) । तात्पर्य है कि समताके आनेसे पुराना पाप नष्ट हो जाता है और नया पाप लगता नहीं (४ । २३) । जो मनुष्य सब तरहकी आशाओंको छोड़कर केवल शरीरनिर्वाह-सम्बन्धी कर्म करता है, उसको भी पाप नहीं लगता (४ । २१); क्योंकि उसके भीतर सुखबुद्धि, भोगबुद्धि नहीं है । स्वभावनियत अर्थात् शास्त्रनियत कर्म करनेवाला मनुष्य पापको प्राप्त नहीं होता (१८ । ४७) । जिसमेंमैं कर्म करता हूँ’ऐसा अहंकार नहीं है और जिसमेंमुझे कर्मफल मिले’‒ऐसी फलेच्छा नहीं है, वह मनुष्य सम्पूर्ण प्राणियोंको मारकर भी न तो मारता है और न उस पापसे बँधता है (१८ । १७) ।