।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
    भाद्रपद कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०७९, शुक्रवार

जन्माष्टमी

गीतामें विविध विद्याएँ



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(५) भोजन करनेकी विद्याभोजन करनेके बाद पेटकी याद नहीं आनी चाहिये । पेट दो कारणोंसे याद आता है‒अधिक खानेपर अथवा कम खानेपर । अतः भोजन न अधिक हो और न कम हो, प्रत्युत नियमित हो (६ । १६-१७) । भोजनके पदार्थ भी सात्त्विक हों (१७ । ८) ।

चौथे अध्यायके चौबीसवें श्‍लोकको शिष्टजन भोजनके समय बोलते हैं, जिससे भोजनरूप कर्म भी यज्ञ बन जाय ।

(६) विषय-सेवनकी विद्या‒रागपूर्वक विषयोंका चिन्तन करनेमात्रसे मनुष्यका पतन हो जाता है (२ । ६२-६३) । परन्तु अपने वशीभूत की हुई राग-द्वेषरहित इन्द्रियोंसे विषयोंका सेवन करनेसे प्रसन्नताकी प्राप्ति होती है अर्थात् अन्तःकरण स्वच्छ, निर्मल हो जाता है और सम्पूर्ण दुःखोंका नाश हो जाता है । स्वच्छ अन्तःकरणवाले पुरुषकी बुद्धि बहुत जल्दी परमात्मामें स्थिर हो जाती है (२ । ६४-६५) ।

(७) भगवान्‌के अर्पण करनेकी विद्या‒अर्पणके दो विभाग हैं‒पदार्थ अर्पण करना और क्रिया अर्पण करना । जो मनुष्य श्रद्धा-प्रेमपूर्वक पत्र, पुष्य, फल, जल आदि पदार्थ भगवान्‌के अर्पण करता है, उसके द्वारा भक्तिपूर्वक दिये हुए उस उपहार (भेंट)-को भगवान्‌ खा लेते हैं (९ । २६) । अगर किसीके पास भगवान्‌को अर्पण करनेके लिये पत्र, पुष्प आदि भी न हों तो वह जो कुछ करता है, जो कुछ खाता है, जो कुछ यज्ञ करता है, जो कुछ दान देना चाहता है और जो कुछ तप करता है, उन सबको भगवान्‌के अर्पण कर दे । ऐसा करनेसे वह सम्पूर्ण शुभाशुभ कर्मोंसे, बन्धनोंसे मुक्त हो जाता है (९ । २७-२८) ।

(८) दान देनेकी विद्या‒दान तो प्रायः सभी लोग देते ही हैं, पर विधिपूर्वक नहीं देते । भगवान्‌ दान देनेकी विद्या बताते है कि देश, काल और पात्रके प्राप्त होनेपर देना कर्तव्य है’ऐसा समझकर प्रत्युपकारकी भावनाका त्याग करके दान देना चाहिये । ऐसा दान सात्त्विक होता है और यही दान बन्धनसे मुक्त करनेवाला होता है (१७ । २०) ।

(९) यज्ञ करनेकी विद्या‒जो भी यज्ञ किया जाय, वह फलकी इच्छाका त्याग करके किया जाय तथायज्ञ करना कर्तव्य है’ऐसा समझकर किया जाय तो वह यज्ञ सात्त्विक होता है, और गुणातीत करनेवाला होता है (१७ । ११) ।

(१०) कर्मोंको सत् बनानेकी विद्या‒यदि कर्मोंको भगवान्‌के अर्पण कर दिया जाय तो सब कर्म सत् हो जाते हैं, निर्गुण हो जाते हैं (१७ । २७) ।

(११) पूजनकी विद्या‒मनुष्य अपने वर्ण-आश्रमके अनुसार जो शास्त्रनियत कर्म करता है, उन्हीं कर्मोंको वह परमात्माके पूजनकी सामग्री बना ले अर्थात् अपने-अपने कर्मोंके द्वारा सर्वव्यापी परमात्माका पूजन करे, उन कर्मोंको परमात्माके प्रीत्यर्थ करे, उन कर्मोंसे अपना कोई स्वार्थ न रखे (१८ । ४६) ।

(१२) समता लानेकी विद्या‒राग-द्वेषके वशमें होकर कोई भी क्रिया नहीं करनी चाहिये (३ । ३४) । जो भी कार्य करे, शास्त्रकों सामने रखकर ही करे; क्योंकि कर्तव्य-अकर्तव्यका निर्णय करनेमें शास्त्र ही प्रमाण है (१६ । २४) । महापुरुषके आचरणों और वचनोंके अनुसार ही सब क्रियाएँ करे (३ । २१) । कर्मोंकी सिद्धि-असिद्धिमें सम रहे (२ । ३८, ४८) । ऐसा करनेसे अपनेमें समता आ जाती है । तात्पर्य है कि करनेमें राग-द्वेष न करे और होनेमें हर्ष-शोक न करे । ऐसा करनेमें मनुष्यमात्र स्वतन्त्र है, सबल है ।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !