।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
    भाद्रपद कृष्ण नवमी, वि.सं.-२०७९, शनिवार

गीता और संसारमें रहनेकी विद्या



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परिस्थितिषु सर्वासु  स्थिता  मुच्यन्तु बन्धनात् ।

एषा विद्या नवा प्रोक्ता गीतायां हरिणा स्वयम् ॥

भगवद्‌गीता एक बहुत विलक्षण ग्रन्थ है । इसको देखनेसे, इसको गहरा उतरकर समझनेसे ऐसा मालूम होता है कि जिसको तत्त्वज्ञान, भगवद्दर्शन, भगवत्प्रेम, कल्याण, मुक्ति, उद्धार कहते हैं, वह गीताके अनुसार सांसारिक छोटा-बड़ा सब काम करते हुए हो जाता है (२ । ३८; ३ । १९; ४ ।२०; १८ । ५६) । आश्रमोंके परिवर्तनकी तथा भजन, ध्यान, जप-कीर्तन आदि कर्मोंके परिवर्तनकी जो बातें आती हैं, गीताके अनुसार उनकी आवश्यकता नहीं है । मनुष्य जिस वर्णमें, जिस आश्रममें, जिस स्थानमें है, वह वहाँ ही रहकर निष्कामभावसे तत्परतापूर्वक अपने कर्तव्यका पालन करके परमात्मप्राप्ति कर सकता है  (१८ । ४५) । उसके लिये आश्रम आदिके नये परिवर्तनकी आवश्यकता नहीं है । तात्पर्य है कि गीताने प्राप्त परिस्थितिके सदुपयोगसे कल्याणकी बात बतायी है अर्थात् व्यवहारमें परमार्थ-सिद्धिकी कला, विद्या बतायी है । इस विद्यामें दो बातें मुख्य है‒अपने कर्तव्यका पालन करना और दूसरोंके अधिकारकी रक्षा करना (२ । ४७; ३ । १०-१२) ।

सम्बन्धियोंका, कुटुम्बियोंका हमारेपर जो अधिकार है, उसकी बिना किसी प्रत्युपकारकी इच्छासे, बिना किसी लोभके, बिना किसी दबावके रक्षा करनी है । जिस तरहसे वे राजी रहें, सुखी रहें, उनका कल्याण हो, हित हो, वैसा काम करते हुए अपनी बुद्धि, बल, योग्यता आदिको बचाकर न रखे । भगवान्‌की आज्ञा समझकर बड़ी तत्परतासे उनकी सेवा करता रहे । जैसे, माता-पिताकी जो माँग है, आवश्यकता है, वह न्याययुक्त हो और अपनेमें उसको पूरा करनेकी सामर्थ्य हो, तो उसको पूरा कर देना चाहिये । परन्तु वे हमारे अनुकूल बन जायँ‒ऐसी इच्छा किञ्चिन्मात्र भी नहीं रहनी चाहिये । इस प्रकार भाई-भौजाई, स्त्री-पुत्र, नौकर, पड़ोसी आदि सबका हित करना चाहिये । और तो क्या, अपने घरके गाय, बैल, ऊँट, भेड़, बकरी आदिका भी हित करना चाहिये । अपने घरमें रहनेवाले चूहे, मच्छर, खटमल आदि हमें तंग करें तो उनसे अपनेको बचानेका अधिकार तो हमें है, पर उनका नाश करनेका अधिकार हमें नहीं है । इसी तरह साँप, बिच्छू आदि जहरीले जीव आ जायँ तो उनको पकड़कर किसी सुरक्षित जगह ले जाकर छोड़नेमें कोई दोष नहीं है, पर उनको मारनेका अधिकार हमें नहीं है । मकान आदि वस्तुओंका सदुपयोग करते हुए उनकी वृद्धि करते रहना चाहिये; किन्तु भाव ऐसा रखना चाहिये कि हम तो यहाँ आये हैं और फिर चले जायँगे, पर यहाँ हमारे पुत्र-पौत्र आदि रहेंगे; उनकी सुविधाके लिये मकान आदिकी ठीक तरहसे रक्षा करनी है । यद्यपि पुत्र-पौत्र आदि भी यहाँ आये हैं और चले जायँगे, तो भी हमें उनको आराम देना है, उनकी सेवा करनी है, हित करना है । इसी तरह अपने मुहल्ले, गाँव, प्रान्त, देश आदिकी भी सेवा करनी है ।

स्वयं परमात्माका अंश होनेसे नित्य है, पर वह अनित्य शरीर आदिकोमैं’ औरमेरा’ मानकर उनके अधीन हो जाता है (१५ । ७) तो उसको संसारमें रहना आया नहीं । अगर उसको संसारमें रहना आता तो वह शरीर आदिमें लिप्त नहीं होता, पराधीन नहीं होता ।

संसारमें हजारों-लाखों मकान हैं, पर वे सब-के-सब अगर गिर भी जायँ तो उसका हमें दुःख नहीं होता; अतः उनसे हम मुक्त रहते हैं । परन्तु जिस मकानको हम अपना मान लेते हैं, उसमें हम फँस जाते हैं । अतः मकान आदिको केवल व्यवहारके लिये ही अपना मानना चाहिये । जैसे कोई आफिसमें जाता है तो वह कुर्सी, टेबुल आदिको उपयोगमें लानेके लिये ही अपना मानता है, भीतरसे उनको अपना नहीं मानता । ऐसे ही संसारकी वस्तुओंको उपयोगमें लानेके लिये ही अपना माने, भीतरसे उनको कभी अपना और अपने लिये न माने । इसी तरह माता-पिता आदिकी सेवा करनेके लिये ही उनको अपना माने । केवल सेवाके लिये ही अपना माननेसे स्वयंकी लिप्तता मिटती है ।

जैसे, कोई पथिक रातमें किसी सज्जनके मकानपर ठहरता है तो वह ईमानदारीसे यह चाहता है कि इस घरमें रहनेवालोंको मेरे द्वारा कोई कष्ट न हो, उनका बचा हुआ भोजन मैं कर लूँ, रातमें कोई चोर-डाकू आ जाय अथवा उनपर किसी तरहकी आफत आ जाय तो अपनेपर आफत झेलकर भी उनकी सहायता करनी है; क्योंकि मैं तो आगन्तुक हूँ और ये सब घरके मालिक हैं । इसी तरह हम इस संसारमें पथिकरूपसे आये हैं । अतः हमें अपने निर्वाहके लिये किसीको किञ्चिन्मात्र भी कष्ट नहीं देना है, प्रत्युत अपने तन, मन, धन, विद्या, बुद्धि, योग्यता, पद, अधिकार आदिको दूसरोंकी सेवामें लगाना है; क्योंकि ये सब-की-सब चीजें हमें यहींसे, संसारसे ही मिली हैं । मिली हुई चीज अपनी और अपने लिये नहीं होती, प्रत्युत केवल दूसरोंकी सेवामें लगानेके लिये होती है; अतः उसको दूसरोंकी सेवामें ही खर्च करना है ।

तात्पर्य है कि संसारमें अपने लिये नहीं रहना है, प्रत्युत संसारके लिये ही रहना है‒यह संसारमें रहनेकी विद्या है ।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !