Listen परिस्थितिषु
सर्वासु स्थिता मुच्यन्तु बन्धनात् । एषा विद्या नवा प्रोक्ता गीतायां हरिणा स्वयम् ॥ भगवद्गीता एक बहुत विलक्षण ग्रन्थ है । इसको देखनेसे,
इसको गहरा उतरकर समझनेसे ऐसा मालूम होता है कि जिसको तत्त्वज्ञान,
भगवद्दर्शन, भगवत्प्रेम, कल्याण, मुक्ति, उद्धार कहते हैं, वह गीताके अनुसार सांसारिक छोटा-बड़ा सब काम करते हुए हो जाता
है (२ । ३८; ३ । १९; ४ ।२०; १८ । ५६) । आश्रमोंके परिवर्तनकी तथा भजन, ध्यान, जप-कीर्तन आदि कर्मोंके परिवर्तनकी जो बातें आती हैं,
गीताके अनुसार उनकी आवश्यकता नहीं है । मनुष्य जिस वर्णमें,
जिस आश्रममें, जिस स्थानमें है, वह वहाँ ही रहकर निष्कामभावसे तत्परतापूर्वक अपने कर्तव्यका
पालन करके परमात्मप्राप्ति कर सकता है (१८
। ४५) । उसके लिये आश्रम आदिके नये परिवर्तनकी आवश्यकता नहीं है । तात्पर्य है कि गीताने प्राप्त परिस्थितिके सदुपयोगसे कल्याणकी बात बतायी है अर्थात्
व्यवहारमें परमार्थ-सिद्धिकी कला, विद्या बतायी है । इस विद्यामें दो बातें मुख्य है‒अपने
कर्तव्यका पालन करना और दूसरोंके अधिकारकी रक्षा करना (२ । ४७; ३ ।
१०-१२) । सम्बन्धियोंका, कुटुम्बियोंका हमारेपर जो अधिकार है,
उसकी बिना किसी प्रत्युपकारकी इच्छासे,
बिना किसी लोभके, बिना किसी दबावके रक्षा करनी है । जिस तरहसे वे राजी रहें,
सुखी रहें, उनका कल्याण हो, हित हो, वैसा काम करते हुए अपनी बुद्धि,
बल, योग्यता आदिको बचाकर न रखे । भगवान्की आज्ञा समझकर बड़ी तत्परतासे
उनकी सेवा करता रहे । जैसे, माता-पिताकी जो माँग है, आवश्यकता है, वह न्याययुक्त हो और अपनेमें उसको पूरा करनेकी सामर्थ्य हो,
तो उसको पूरा कर देना चाहिये । परन्तु वे हमारे अनुकूल बन जायँ‒ऐसी
इच्छा किञ्चिन्मात्र भी नहीं रहनी चाहिये । इस प्रकार भाई-भौजाई,
स्त्री-पुत्र, नौकर, पड़ोसी आदि सबका हित करना चाहिये । और तो क्या,
अपने घरके गाय, बैल, ऊँट, भेड़, बकरी आदिका भी हित करना चाहिये । अपने
घरमें रहनेवाले चूहे, मच्छर, खटमल आदि हमें तंग करें तो उनसे अपनेको बचानेका अधिकार
तो हमें है, पर उनका नाश करनेका अधिकार हमें नहीं है । इसी तरह
साँप, बिच्छू
आदि जहरीले जीव आ जायँ तो उनको पकड़कर किसी सुरक्षित जगह ले जाकर छोड़नेमें कोई दोष नहीं
है, पर
उनको मारनेका अधिकार हमें नहीं है । मकान आदि वस्तुओंका सदुपयोग करते हुए उनकी वृद्धि करते रहना चाहिये;
किन्तु भाव ऐसा रखना चाहिये कि हम तो यहाँ आये हैं और फिर चले
जायँगे,
पर यहाँ हमारे पुत्र-पौत्र आदि रहेंगे;
उनकी सुविधाके लिये मकान आदिकी ठीक तरहसे रक्षा करनी है । यद्यपि
पुत्र-पौत्र आदि भी यहाँ आये हैं और चले जायँगे, तो भी हमें उनको आराम देना है,
उनकी सेवा करनी है, हित करना है । इसी तरह अपने मुहल्ले, गाँव,
प्रान्त, देश आदिकी भी सेवा करनी है । स्वयं परमात्माका अंश होनेसे नित्य है,
पर वह अनित्य शरीर आदिको ‘मैं’ और ‘मेरा’ मानकर उनके अधीन हो जाता है (१५ । ७) तो उसको संसारमें रहना
आया नहीं । अगर उसको संसारमें रहना आता तो वह शरीर आदिमें लिप्त नहीं होता,
पराधीन नहीं होता । संसारमें हजारों-लाखों मकान हैं,
पर वे सब-के-सब अगर गिर भी जायँ तो उसका हमें दुःख नहीं होता;
अतः उनसे हम मुक्त रहते हैं । परन्तु जिस मकानको हम अपना मान
लेते हैं,
उसमें हम फँस जाते हैं । अतः मकान आदिको केवल व्यवहारके लिये
ही अपना मानना चाहिये । जैसे कोई आफिसमें जाता है तो वह कुर्सी,
टेबुल आदिको उपयोगमें लानेके लिये ही अपना मानता है,
भीतरसे उनको अपना नहीं मानता । ऐसे ही संसारकी वस्तुओंको उपयोगमें लानेके लिये ही अपना माने, भीतरसे
उनको कभी अपना और अपने लिये न माने । इसी तरह माता-पिता आदिकी सेवा करनेके लिये ही
उनको अपना माने । केवल सेवाके लिये ही अपना माननेसे स्वयंकी लिप्तता मिटती है । जैसे, कोई पथिक रातमें किसी सज्जनके मकानपर ठहरता है तो वह ईमानदारीसे
यह चाहता है कि इस घरमें रहनेवालोंको मेरे द्वारा कोई कष्ट न हो,
उनका बचा हुआ भोजन मैं कर लूँ, रातमें कोई चोर-डाकू आ जाय अथवा
उनपर किसी तरहकी आफत आ जाय तो अपनेपर आफत झेलकर भी उनकी सहायता करनी है;
क्योंकि मैं तो आगन्तुक हूँ और ये सब घरके मालिक हैं । इसी तरह
हम इस संसारमें पथिकरूपसे आये हैं । अतः हमें अपने निर्वाहके लिये किसीको किञ्चिन्मात्र
भी कष्ट नहीं देना है, प्रत्युत अपने तन, मन, धन, विद्या, बुद्धि, योग्यता, पद, अधिकार आदिको दूसरोंकी सेवामें लगाना है;
क्योंकि ये सब-की-सब चीजें हमें यहींसे,
संसारसे ही मिली हैं । मिली हुई चीज अपनी और अपने लिये नहीं
होती,
प्रत्युत केवल दूसरोंकी सेवामें लगानेके लिये होती है;
अतः उसको दूसरोंकी सेवामें ही खर्च करना है । तात्पर्य है कि संसारमें अपने लिये नहीं रहना है, प्रत्युत
संसारके लिये ही रहना है‒यह संसारमें रहनेकी विद्या है । नारायण
! नारायण ! नारायण ! नारायण ! |