Listen दुर्योधनेन
कृष्णेन ब्रह्मणा फाल्गुनेन च । या या आज्ञाश्च संदत्तास्तत्तात्पर्यं च कथ्यते ॥ गीतामें दुर्योधनने द्रोणाचार्यको विशेषतासे युद्ध करनेके लिये
और सेनानायकोंको भीष्मजीकी रक्षा करनेके लिये आज्ञा दी है,
अर्जुनने रथीके नाते सारथिरूप भगवान्को आज्ञा दी है,
ब्रह्माजीने सर्गके आदिमें देवता और मनुष्यको अपने-अपने कर्तव्य-कर्मरूप
यज्ञका पालन करनेके लिये आज्ञा दी है, भगवान्ने ज्ञानियोंको कर्तव्य-कर्मकी उपेक्षा न करनेकी आज्ञा
दी है और अर्जुन युद्ध करनेसे इन्कार कर रहे थे तो भगवान्ने अर्जुनको आश्वासनपूर्वक
बहुत बार आज्ञाएँ दी हैं । दुर्योधनने द्रोणाचार्यसे पाण्डवोंकी बड़ी भारी सेनाको देखनेके
लिये कहा‒‘पश्य’ (१ । ३) । तात्पर्य है कि आप इस सेनाको विशेषतासे देखिये । आप इसको मामूली समझकर इसकी उपेक्षा
न करें,
यह युद्धका मामला है । इस सेनामें बड़े-बड़े शूरवीर हैं । अतः
आप सावधान रहें । पाण्डवोंकी सेना तो सामने ही खड़ी थी;
अतः दुर्योधनने ‘पश्य’
कहा । पर अपनी सेना द्रोणाचार्यकी पीठके पीछे थी;
अतः दुर्योधन ‘निबोध’
(१ ।
७) । क्रियाका प्रयोग करके कहता
है कि आप हमारे सेनाको भी समझ लें, यादमात्र कर लें कि हमारी सेना भी बल आदिमें कोई कम नहीं है
। फिर दुर्योधन अपने-अपने स्थानपर स्थित सम्पूर्ण सेनानायकोंको पितामह भीष्मकी रक्षा
करनेके लिये आज्ञा देता है‒‘अभिरक्षन्तु’ (१ । ११) । कारण कि भीष्मजीकी रक्षा होनेसे हम सबकी रक्षा हो जायगी और उनके सेनापति होनेसे
हमारी विजय भी हो जायगी । इस प्रकार दुर्योधनने द्रोणाचार्यको ‘पश्य’ और ‘निबोध’
पदसे जो आज्ञाएँ दी हैं, वे आदरपूर्वक ही दी हैं; क्योंकि दुर्योधन स्वयं राजा होते हुए भी द्रोणाचार्यके पास
जाता है और ‘आचार्य’ सम्बोधन देकर आदरपूर्वक आज्ञा देता है । अतः इन आज्ञाओंमें भी
एक प्रकारकी प्रार्थना ही है । अर्जुन ‘रथं
स्थापय’ (१ ।
२१) पदोंसे भगवान्को दोनों सेनाओंके
बीचमें रथ खड़ा करनेकी आज्ञा देते हैं । यद्यपि अर्जनके मनमें भगवान्के प्रति विशेष
आदरभाव है, तथापि भगवान्के सारथि बने हुए होनेसे अर्जुन रथीका कर्तव्य निभाते हुए उन्हें
आज्ञा देते हैं । इसी तरह ‘ब्रूहि’ (२ । ७; ५ । १); ‘शाधि’
(२ । ७); ‘वद’ (३ । २); ‘कथय’ (१० । १८);
‘दर्शय’ (११ ।
४, ४५); ‘प्रसीद’ (११ ।
२५, ३१, ४५); और
‘भव’
(११ ।
४६) पदोंमें भी अर्जुनकी भगवान्के
लिये आज्ञा प्रतीत होती है; परन्तु वास्तवमें यह आज्ञा नहीं है,
प्रत्युत प्रार्थना है; क्योंकि व्याकरणमें ‘लोट्’-लकार
‘प्रार्थना’
अर्थमें भी होता है । ब्रह्माजी सृष्टिके रचयिता हैं । अतः चाहते हैं कि सृष्टिका
संचालन सुचारुरूपसे हो, जो मनुष्यों और देवताओंका आपसमें स्नेह रहनेसे ही हो सकता है
। इसलिये ब्रह्माजी ‘प्रसविष्यध्वम्’, ‘भावयत’ (३ ।१०-११) पदोंसे मनुष्योंको आज्ञा देते हैं कि तुमलोग कर्तव्य-कर्मरूप
यज्ञके द्वारा अपनी वृद्धि करो और इस यज्ञसे तुमलोग भी देवताओंको उन्नत करो । फिर
‘भावयन्तु’ (३ ।
११) पदसे देवताओंको आज्ञा देते
हैं कि तुमलोग अपने-अपने अधिकारके अनुसार मनुष्योंको उन्नत करो । इस प्रकार एक-दूसरेको
उन्नत करते हुए तुमलोग परम श्रेयको प्राप्त हो जाओगे ।
ज्ञानी महापुरुषोंके लिये भगवान् आज्ञा देते हैं कि जैसे मैं कर्तव्य-कर्मकी उपेक्षा
नहीं करता हूँ (३ । २२-२४) ऐसे ही ज्ञानीको भी कर्मोंकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये;
प्रत्युत कर्मोंमें आसक्त अज्ञानी पुरुष जिस तत्परतासे कर्म
करते हैं,
उसी तत्परतासे वह लोकसंग्रहको ध्यानमें रखते हुए आसक्ति-रहित
होकर कर्तव्य-कर्म करे‒‘कुर्यात्’ (३ । २५) । वह कर्मासक्त मनुष्योंमें ‘ज्ञानके सामने कर्म करना तुच्छ है,
कर्म करनेवाले अयोग्य हैं, नीचे दर्जेंके हैं और ज्ञानके अधिकारी बड़े हैं’
आदि बुद्धिभेद न पैदा करे‒‘न बुद्धिभेदं जनयेत्’ (३ ।२६), प्रत्युत उनसे भी वैसे ही आसक्तिरहित होकर कर्म करवाये–‘जोषयेत्’ (३ । २६) । अगर ज्ञानी कर्म न भी करे तो कोई बात नहीं;
पर कम-से-कम वह अपने वचनोंसे, भावसे अज्ञानी मनुष्योंको कर्तव्य-कर्मसे विचलित न करे‒‘न विचालयेत्’ (३ । २९) । तात्पर्य है कि कर्मोंमें आसक्त मनुष्य कर्तव्य-कर्मसे विचलित
न हो जायँ, इस विषयमें ज्ञानी पुरुषोंको विशेष सावधानी रखनी चाहिये । |