Listen गीतामें भगवान्ने अर्जुनको कई आज्ञाएँ दी हैं;
जैसे‒अर्जुन युद्ध नहीं करना चाहते थे;
अतः भगवान्ने ‘उत्तिष्ठ’
(२ ।
३७; ४ ।
४२) ‘युद्धाय युज्यस्व’
(२ । ३८), ‘युध्यस्व’ (३ ।
३०; ११ ।
३४) और ‘युध्य’ (८ ।
७) पदोंसे अर्जुनको युद्ध करनेकी
आज्ञा दी । अर्जुन आज्ञापालक थे ही । अर्जुनको जहाँ भगवान्की बात पसंद नहीं आती,
वहाँ वे कह देते हैं कि ‘भगवन् ! आप मेरेको घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं ?’ (३ । १) । इससे सिद्ध होता है कि भगवान्के कहनेपर अर्जुन अपने
कल्याणके लिये युद्ध-जैसे घोर कर्ममें भी प्रवृत्त हो सकते हैं अर्थात् भगवान् आज्ञा
देंगे तो वे उसे टालेंगे नहीं, प्रस्तुत वैसा ही करेंगे । भगवान्ने अर्जुनको कर्मयोगके विषयमें ये आज्ञाएँ दी हैं‒‘विद्धि’
(३ ।
३७; ४ ।
१३, ३२; ६ ।
२), ‘मा कर्मफलहेतुर्भूः’ (२ ।
४७), ‘योगस्थः कुरु कर्माणि’ (२ ।
४८), ‘योगाय युज्यस्व’ (२ । ५०),
‘नियतं
कुरु कर्म’ (३ । ८),
‘समाचर’ (३ ।९, १९), ‘कुरु कर्मैव’ (४ । १५) आदि-आदि । ज्ञानयोगके विषयमें ये आज्ञाएँ दी हैं‒‘विद्धि’
(२ ।
१७; ४ ।
३४; १३ ।
२, १९, २६),
‘शृणु’ (१३ ।
३) आदि-आदि । भक्तियोगके विषयमें
ये आज्ञाएँ दी हैं‒‘विद्धि’ (७ ।
५, १०, १२; १० ।
२४, २७), ‘शृणु’ (७ । १; १० । १), ‘मामनुस्मर’ (८ ।
७), ‘पश्य मे योगमैश्वरम्’ (९ । ५; ११ । ८), ‘उपधारय’ (७ ।
६; ९ ।
६), ‘कुरुष्व’ (९ । २७), ‘प्रतिजानीहि’ (९ ।
३१), ‘भजस्व माम्’ (९ । ३३), ‘निवेशय’ (१२ ।
८), ‘इच्छ’ (१२ ।
९), ‘मा शुचः’ (१६ । ५; १८ । ६६) आदि-आदि । समतामें स्थित होनेके लिये ये आज्ञाएँ दी हैं‒‘तस्माद्योगी भवार्जुन’ (६ ।
४६), ‘योगयुक्तो
भवार्जुन’ (८ । २७) । इसके सिवाय अन्य विषयोंमें भी भगवान्ने कई आज्ञाएँ दी हैं; जैसे‒‘कुरून् पश्य’ (१ ।
२५), ‘क्लैब्यं मा स्म गमः’ (२ ।
३), ‘तितिक्षस्व’ (२ ।
१४), ‘यशो लभस्व’ (११ ।
३३) आदि-आदि । उपर्युक्त आज्ञाओंके विषयमें कुछ बातें समझनेकी हैं‒जहाँ अर्जुन
प्रश्र करते हैं, वहाँ भगवान् उस प्रश्रका उत्तर देते हुए उसके अनुसार ही आज्ञा
देते हैं;
परन्तु जहाँ भगवान् अपनी ओरसे आज्ञा देते हैं,
वहाँ अर्जुनके लिये भक्तियोगकी ही आज्ञा देते हैं । भगवान् जहाँ आज्ञा देते हैं, वहाँ अपनेमें लगनेकी बात भी कह देते हैं और संसारके रागको हटानेकी
बात भी कह देते हैं । जहाँ भगवान् केवल संसारका राग हटानेकी आज्ञा देते हैं,
वहाँ भी भगवान्का उद्देश्य सांसारिक रागको हटाकर अपनेमें लगानेका
ही रहता है । दूसरी दृष्टिसे देखा जाय तो भगवान् जहाँ भक्तिकी (अपनेमें लगनेकी) आज्ञा
देते हैं,
वहाँ तो भक्ति है ही, पर जहाँ कर्मयोगकी (सांसारिक रागको हटानेकी) आज्ञा देते हैं,
वहाँ भी भगवान्की आज्ञा होनेसे भक्ति ही है । भगवान् जहाँ ज्ञानकी आज्ञा देते हैं,
वहाँ भी संसारसे राग हटानेका और अपनेमें लगानेका भाव रहता ही
है । यही भाव गीतामें कहीं आज्ञारूपसे, कहीं विवेकरूपसे और कहीं भावरूपसे देखनेको मिलता है ।
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! |