Listen कृष्णस्य
फाल्गुनस्यास्ति सिद्धस्य संजयस्य च । भक्तसाधकयोश्चैवाभक्तासाधकयोर्मतम् ॥ १. भगवान्की मान्यता भगवान्की मान्यतामें भक्तिका अधिक महत्त्व है अर्थात् भगवान्
अपनी भक्तिको विशेष आदर देते है और उसको सर्वोपरि मानते हैं । ऐसे तो भगवान्ने ज्ञानयोग,
कर्मयोग, ध्यानयोग, गीताध्ययन आदिमें भी अपनी मान्यता बतायी है,
पर भक्ति-जैसी नहीं । तीसरे अध्यायके तीसवें श्लोकमें भगवान्ने अपनी भक्तिकी बात
कही और उसी बातको वे इकतीसवें-बत्तीसवें श्लोकोंमें अन्वय-व्यतिरेकसे पुष्ट करते हुए
कहते हैं कि जो मनुष्य दोषदृष्टिरहित होकर श्रद्धापूर्वक मेरे इस मतका अनुष्ठान करते
हैं,
वे कर्मोंसे मुक्त हो जाते हैं; परन्तु दोषदृष्टि और अश्रद्धा
करनेवाले जो मनुष्य मेरे इस मतका अनुष्ठान नहीं करते,
उनका पतन हो जाता है । ध्यानयोगीकी दृष्टिका वर्णन करते हुए भगवान् कहते हैं कि जो
ध्यानयोगी अपने शरीरकी उपमासे सबको समान देखता है तथा सुख और दुःखको भी समान देखता
है,
वह योगी श्रेष्ठ माना गया है । (६ ।३२) । ध्यानयोगका वर्णन सुनकर जब अर्जुन मनकी चंचलताको दूर करना बड़ा
कठिन बताते हैं, तब भगवान् मनकी चंचलताको दूर करनेके लिये अभ्यास और वैराग्य‒ये दो उपाय बताकर
इस विषयमें अपनी मान्यता बताते हैं कि ‘जिसका मन वशमें (संयत) नहीं है उसके द्वारा ध्यानयोग सिद्ध होना
कठिन है और जिसका मन वशमें है, उसके द्वारा ध्यानयोग सिद्ध हो जाता है‒ऐसा मेरा मत है’
(६ । ३६) । योगभ्रष्टके विषयमें अर्जुनका संदेह दूर करनेके बाद भगवान्
कहते हैं कि जो मेरेमें तल्लीन हुए अन्तःकरणसे श्रद्धा-प्रेमपूर्वक मेरा भजन करता है,
वह मेरा भक्त ज्ञानयोगी, कर्मयोगी आदि सम्पूर्ण योगियोंसे श्रेष्ठ है‒ऐसा मेरा मत है
(६ । ४७) । अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी (प्रेमी)‒इन चारों भक्तोंको सुकृती और उदार
बताकर भगवान् कहते हैं कि ज्ञानी (प्रेमी) भक्त तो मेरी आत्मा (स्वरूप) ही है‒ऐसा
मेरा मत है; क्योंकि उसकी कोई अन्य कामना नहीं है, वह केवल मेरेमें ही लगा हुआ है (७ । १८) । बारहवें अध्यायके आरम्भमें अर्जुनने पूछा कि भक्तियोग और ज्ञानयोगके
उपासकोंमें कौन श्रेष्ठ है ? तो भगवान् कहते हैं कि मेरेमें मन लगानेवाले,
परमश्रद्धासे युक्त होकर मेरी उपासना करनेवाले भक्त सर्वश्रेष्ठ
हैं‒ऐसा मेरा मत है ( १२ । २) ।
सांसारिक जितने भी ज्ञान हैं, उन सबमें क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ, देह-देही, शरीर-शरीरी, अनित्य-नित्य, असत्-सत्का ज्ञान (विवेक) श्रेष्ठ है । यह ज्ञान सम्पूर्ण
साधनोंका आधार है, मूल है; क्योंकि साधक कोई भी साधन करेगा तो उसमें यह विवेक रहेगा ही
। अतः भगवान् कहते हैं कि क्षेत्र-क्षेत्रज्ञका ज्ञान ही मेरे मतमें यथार्थ ज्ञान
है (१३ । २) । |