।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
    भाद्रपद कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०७९, बुधवार

गीतामें विभिन्न मान्यताएँ



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अठारहवें अध्यायके आरम्भमें भगवान्‌ने सांख्ययोग और कर्मयोगके विषयमें अन्य दार्शनिकोंके चार मत बताये । उन चारों मतोंकी तुलनामें भगवान्‌ कहते हैं कि कर्म और उसके फलमें आसक्तिका त्याग करके कर्तव्य-कर्म करना चाहिये‒यह मेरा निश्चित किया हुआ उत्तम मत है (१८ । ६) ।

गीताके अध्ययन, पठन-पाठनकी महिमाका वर्णन करते हुए भगवान्‌ कहते हैं कि जो इस गीता-ग्रन्थका केवल अध्ययन भी करेगा, पाठ भी करेगा, उसके द्वारा मैं ज्ञानयज्ञसे पूजित हो जाऊँगा‒ऐसी मेरी मान्यता है (१८ ।७०) ।

इस तरह भक्तिके विषयमें चार, ध्यानयोगके विषयमें दो, ज्ञानयोगके विषयमें एक, कर्मयोगके विषयमें एक और गीताध्ययनके विषयमें एक‒इन सम्पूर्ण मान्यताओंका तात्पर्य है कि भगवान्‌ने भक्तिको ही ज्यादा मान्यता दी है, आदर दिया है ।

२. अर्जुनकी मान्यता

अर्जुन ध्यानयोगके सिद्ध न होनेमें चित्तकी चंचलताको कारण मानते हुए कहते हैं कि यह मन बड़ा चंचल, प्रमथनशील, बलवान् और जिद्दी है । मैं इस मनको रोकना वायुकी तरह कठिन मानता हूँ (६ । ३४) ।

भगवान्‌के प्रभावकी बातें सुनकर और उनसे प्रभावित होकर अर्जुन भगवान्‌से कहते हैं कि हे भगवन् ! आप मेरे प्रति जो कुछ भी कह रहे हैं, वह सब मैं सत्य मानता हूँ (१० । १४) ।

भगवान्‌के विश्वरूपको देखते हुए अर्जुनको भगवान्‌के निर्गुण-निराकार, सगुण-निराकार और सगुण-साकार रूपका विशेष बोध हुआ । अतः अर्जुन अपनी मान्यता बताते हुए कहते हैं कि आप ही जानने-योग्य अक्षरब्रह्म हैं, आप ही इस विश्वके परम आधार हैं, आप ही सनातनधर्मके रक्षक हैं और आप ही सनातन पुरुष हैं‒ऐसा मेरा मत है (११ । १८) ।

विश्वरूपको देखकर अर्जुनको भगवान्‌के प्रभावका, उनकी महिमाका ज्ञान हुआ कि भगवान्‌ कितने प्रभावशाली हैं ! अतः उनको अपनी पूर्वकृत भूलोंकी याद आती है और वे कहते है कि मैनें आपको अपना सखा मानकर धृष्टतासे हे कृष्ण ! हे यादव ! हे सखे’ इस तरह कह दिया है, उसके लिये मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ (११ । ४१) ।

अर्जुनकी मान्यताओंका तात्पर्य है कि उनको एक तो अपनी कमजोरी समझमें आयी और दूसरा भगवान्‌का माहात्म्य समझमें आया । ये दोनों बातें यदि साधककी समझमें आ जायँ तो उसका बेड़ा पार है ।

३. संजयकी मान्यता

संजय भगवान्‌के प्रभावको पहलेसे ही जानते थे, पर अर्जुनपर भगवान्‌की विशेष कृपाको देखकर वे विशेष प्रभावित हुए । अतः वे अपना निर्णय सुनाते हैं कि जहाँ योगेश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्ण और गाण्डीव धनुर्धारी अर्जुन हैं, वहाँ ही श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है‒ऐसा मेरा मत है (१८ । ७८) ।

संजयकी मान्यताका तात्पर्य है कि युद्धके परिणाममें पाण्डुपुत्रोंकी ही विजय होगी, इसमें कोई संदेह नहीं है ।