।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
    भाद्रपद कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.-२०७९, गुरुवार

गीतामें विभिन्न मान्यताएँ



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४. सिद्धकी मान्यता

भगवान्‌ ध्यानयोगका फल बताते हुए कहते हैं कि आत्यन्तिक सुखको, लाभको प्राप्त होकर सिद्ध महापुरुष फिर उससे बढ़कर दूसरा कोई लाभ नहीं मानता (६ । २२) ।

जो तत्त्वको जाननेवाले होते हैं, उनकी यथार्थ मान्यता होती है किगुण ही गुणोंमें बरत रहे है’ अर्थात् प्रकृतिजन्य गुणोंमे ही सम्पूर्ण क्रियाएँ हो रही हैं । ऐसा मानकर वे क्रियाओं और पदार्थोंमें आसक्त नहीं होते (३ । २८) । सिद्धकी मान्यताका तात्पर्य है कि उसमें कर्तृत्व-भोक्तृत्व नहीं रहते ।

५. साधक और असाधककी मान्यता

सांख्ययोगी साधककी ऐसी मान्यता होती है कि ‘इन्द्रियों ही इन्द्रियोंके विषयोंमें बरत रही हैं अर्थात् इन्द्रियोंमें ही सम्पूर्ण क्रियाएँ हो रही हैं, मैं कुछ भी नहीं करता हूँ’ (५ । ८-९) । तात्पर्य है कि वह अपनेमें कर्तृत्व नही मानता ।

जो संसारमें रचे-पचे हैं, तत्त्वको नहीं जानते, ऐसे अहंकारसे मोहित अन्तःकरणवाले मनुष्योंकी मान्यता होती है किमैं कर्ता हूँ’ (३ । २७) । अपनेको कर्ता माननेवालेको भोक्ता बनना ही पड़ता है और भोगके लिये आगे जन्म लेना ही पड़ता है । असाधककी मान्यताका तात्पर्य है कि वह अपनेको कर्म करनेवाला मानता है और कर्मोंके फलरूपमें सुख तथा भोग भोगना चाहता है ।

६. भक्त और अभक्तकी मान्यता

भगवान्‌ ही सबके मूल कारण हैं और भगवान्‌से सत्ता-स्फूर्ति पाकर ही संसारमें सम्पूर्ण क्रियाएँ हो रही हैं‒ऐसा मानकर भक्तलोग श्रद्धा-प्रेमपूर्वक भगवान्‌का ही भजन करते हैं (१० । ८) । परन्तु जो अभक्त होते हैं, वे भगवान्‌को साधारण मनुष्योंकी तरह शरीर धारण करनेवाला, जन्मने-मरनेवाला मानते हैं (७ ।२४) ।

७. दैवी और आसुरी प्रकृतिवालोंकी मान्यता

दैवी प्रकृतिवाले मनुष्य भगवान्‌को सम्पूर्ण प्राणियोंका आदि और अविनाशी मानकर अनन्यमनसे (इस लोकके और परलोकके भोगोंका त्याग करके) भगवान्‌का भजन करते हैं (९ । १३) ।

आसुरी प्रकृतिवाले मनुष्य मानते हैं कि सुख भोगने और संग्रह करनेके सिवाय और कुछ है ही नहीं (१६ । ११) ।

तात्पर्य है कि जो संसारके भोग और संग्रहमें लग जाते हैं, उनके मनमें संसारका महत्त्व, संसारकी मान्यता आ जाती है; परन्तु जो भगवान्‌में लग जाते हैं, उनमें संसारकी मान्यता मिटकर भगवान्‌की मान्यता आ जाती है । संसारकी मान्यता परधर्म है; क्योंकि संसार अपना नहीं है और भगवान्‌की मान्यता स्वधर्म है; क्योंकि भगवान्‌ अपने हैं ।

[दूसरे अध्यायके छब्बीसवें श्‍लोकमें तथा अठारहवें अध्यायके उनसठवें श्‍लोकमें आया मन्यसे’ पद भगवान्‌ने मान्यताके आरोपमें कहा है, मान्यतामें नहीं । तीसरे अध्यायके पहले श्‍लोकमें आया ‘मता’ पद भी अर्जुनने मान्यताके आरोपमें कहा है, मान्यतामें नहीं । इसी तरह दूसरे अध्यायके पैंतीसवें श्‍लोकमें आया मंस्यन्ते’ पद भगवान्‌के द्वारा और ग्यारहवें अध्यायके चौथे श्‍लोकमें आया मन्यसे’ पद अर्जुनके द्वारा सम्भावनाके अर्थमें कहा गया है, मान्यताके अर्थमें नहीं ।]

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !