Listen चतुर्विधः
स्वभावश्च प्राकृतो वर्णगस्तथा । उत्पादितश्च
सङ्गेन शुद्धश्च ज्ञानिनां स्मृतः ॥ गीतामें चार प्रकारके स्वभावका वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है‒ (१) समष्टि प्रकृतिगत स्वभाव‒पेड़-पौधोंका उत्पन्न होना, बड़ा होना, फल-फूलोंका लगना आदि;
और ऐसे ही मनुष्य, पशु, पक्षी आदिके शरीरोंका उत्पन्न होना,
बच्चेसे जवान होना, जवानसे बूढ़ा होना तथा शरीरोंमें बलका घटना,
बढ़ना आदि जो कुछ परिवर्तन संसारमें हो रहा है,
वह सब समष्टि प्रकृतिका स्वभाव है । समष्टि प्रकृतिगत स्वभाव किसीके लिये भी दोषी और अहितकर नहीं
होता,
प्रत्युत शुद्ध, पवित्र करनेवाला होता है । बचपनसे जवान और जवानसे बूढ़ा होना
एवं रोगीसे नीरोग और नीरोगसे रोगी होना[*] क्या दोषी होगा ? नहीं, यह तो पाप-पुण्यका फल भुगताकर शुद्ध करता है । परन्तु प्रकृतिके
इस स्वभाव (स्वाभाविक परिवर्तन)-में मनुष्य अपनी मनमानी करने लग जाता है अर्थात् राग-द्वेषपूर्वक
शास्त्रकी आज्ञासे विरुद्ध मनमाने ढंगसे कर्म करने लग जाता है,
जिससे वह बन्धनमें पड़ जाता है । इस स्वभावका वर्णन गीतामें कई जगह हुआ है;
जैसे‒प्रकृतिके गुणोंद्वारा ही सब क्रियाएँ होती हैं (३ । २७);
गुण ही गुणों बरत रहे हैं (३ । २८; १४ । २३); इन्द्रियाँ ही इन्द्रियोंके विषयोंमें बरत रही हैं
(५ । ८-९); प्रकृतिके द्वारा ही सब कर्म होते हैं (१३ । २९) । तात्पर्य यह है कि समष्टि प्रकृतिके
द्वारा होनेवाली क्रियाओंमें मनुष्यको न तो अपनी मनमानी करनी चाहिये और न उनसे सुखी-दुःखी
ही होना चाहिये । (२) वर्णगत-स्वभाव‒यह स्वभाव व्यक्तिगत होता है;
क्योंकि यह पूर्वकर्मोंके अनुसार तथा इस जन्ममें माता-पिताके
रज-वीर्यके अनुसार बनता है । अतः यह स्वभाव भी किसी व्यक्तिके लिये दोषी और पापजनक
नहीं होता । जैसे‒ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र‒इन चारोंके जो अलग-अलग कर्म होते
हैं,
उन कर्मोंकी भिन्नतामें वर्णगत स्वभाव ही कारण है । ब्राह्मणके
खान-पान आदि कर्मोंमें स्वाभाविक ही पवित्रता रहती है,
क्षत्रियके युद्ध करना, दान करना आदि कर्मोंमें स्वाभाविक ही निर्भयता, शूरवीरता,
उदारता रहती है, वैश्यकी खेती करना,
गायोंका पालन करना, व्यापार करना आदि कर्मोंमें स्वाभाविक ही प्रवृत्ति रहती है
और शूद्रकी सभी वर्णोंकी सेवा करनेमें स्वाभाविक ही प्रवृत्ति रहती है । वर्तमानमें
अगर इन चारों वर्णोंमें कहीं ऐसा स्वभाव देखनेमें न आये तो इसमें संग-दोष ही कारण है
। इसलिये मनुष्यको अच्छे संगका ग्रहण और बुरे संगका त्याग करना चाहिये । इस वर्णगत (जातिगत) स्वभावका वर्णन गीताके अठारहवें अध्यायमें
विस्तारसे हुआ है (१८ । ४२‒४८,
५९-६०) । तात्पर्य यह है कि मनुष्यको अपने वर्णगत स्वभावके अनुसार
अपने-अपने शास्त्रविहित कर्तव्यका तत्परतासे निष्कामभावपूर्वक पालन करना चाहिये और
कुसंगका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये । ऐसा करनेसे मनुष्यका स्वतः कल्याण हो सकता है
।[†]
[*] रोग दो प्रकरका होता है‒प्रारब्धजन्य और कुपथ्यजन्य । प्रारब्धजन्य
रोग दवासे नहीं मिटता । जबतक प्रारब्धका वेग होगा, तबतक वह रहेगा ही । कुपथ्यजन्य रोग पथ्यका सेवन करनेसे और दवा
लेनेसे मिट जाता है । यहाँ (समष्टि प्रकृतिगत स्वभावमें) प्रारब्धजन्य रोग ही लिया
गया है । [†] जो मनुष्य अपना कल्याण चाहता है,
उसे शास्त्रविहित भोगोंका भी त्याग कर देना चाहिये और परंपरागत
स्वाभाविक दोषी आचरणोंका भी त्याग करके शुद्ध, पवित्र आचरणोंको ग्रहण करना चाहिये । |
Aug
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