Listen (३) उत्पादित स्वभाव‒यह स्वभाव मनुष्यका अपना बनाया हुआ होता है और सबका अलग-अलग
होता है । मनुष्य जैसा शास्त्र पढ़ता है, जैसे लोगोंका संग करता है, जैसे वातावरणमें रहता है, वैसा ही उसका स्वभाव बन जाता है । तात्पर्य है कि विहित कर्म,
सत्संग तथा पवित्र आचरणोंसे स्वभाव सुधरता है और निषिद्ध कर्म,
कुसंग तथा अपवित्र आचरणोंसे स्वभाव बिगड़ता है (१६ । १‒१८) । इस स्वभावको सुधारनेके लिये भगवान्ने गीतामें जगह-जगह
आज्ञा दी है (३ । ३०, ३४; १६ । २१, २४ आदि) । तात्पर्य है कि अपने स्वभावको शुद्ध,
पवित्र बनानेने अथवा उसको बिगाड़नेमें मनुष्य स्वतन्त्र और सबल
है,
इसमें कोई भी पराधीन और निर्बल नहीं है । अतः मनुष्यको बड़ी सावधानीसे
अपने स्वभावके शुद्ध बनाना चाहिये । स्वभावके बिगड़नेका कभी अवसर ही नहीं आने देना चाहिये
। इसीमें मनुष्यजन्मकी सफलता है । (४) ज्ञानीका स्वभाव‒ज्ञानीका स्वभाव महान् शुद्ध
होता है । सभी ज्ञानी (तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त) महापुरुषोंके स्वभावमें
शुद्धि,
निर्मलता, त्याग, वैराग्य आदि तो समानरूपसे रहते हैं,
पर वर्ण, आश्रम, साधना-पद्धति आदिको लेकर उनके स्वभाव और आचरण एक समान नहीं होते,
प्रत्युत भिन्न-भिन्न होते हैं (३ । ३३) । उनके लिये यह भिन्नता
दोषी नहीं होती; क्योंकि उनमें राग-द्वेष, अभिमान आदि दोषोंका अभाव रहता है । तात्पर्य है कि तत्त्वज्ञान
होनेपर भी ज्ञानी-महात्मा अपने वर्ण, आश्रम, साधन पद्धति आदिके अनुसार ही आचरण, कर्तव्य-कर्म करते हैं
। उपर्युक्त सभी स्वभावोंके वर्णनका तात्पर्य यही लेना चाहिये
कि मनुष्य अपने स्वभावका सुधार करे, उसको बिगाड़े नहीं और किसीके स्वभावको लेकर दोषदृष्टि न करे ।
वह सावधानीपूर्वक दुष्कर्मोंका त्याग करे और सत्कर्मोंको ग्रहण करे । ऐसा करनेमें वह
सर्वथा स्वतन्त्र है । सत्-शास्त्र सत्पुरुषोंका संग और खुदका उत्साह एवं धैर्य इसमें
सहायक होता है । ज्ञातव्य मनुष्यलोकमें स्वभावकी ही मुख्यता है । यह सज्जन है,
यह बड़ा अच्छा है, यह दुष्ट है, यह द्रोही है, यह बड़ा बुरा है, यह चोर-डाकू है, यह बड़ा ठग है, यह बड़ा धोखेबाज है आदि जितनी भी संज्ञाएँ होती हैं,
वे सभी स्वभावको लेकर होती हैं । परलोकमें भी स्वभावके अनुसार
ही गति होती है । मनुष्य अपना स्वभाव जैसा बना लेता है,
उसके अनुसार ही भगवान् उसको योनि देते हैं ।
मनुष्ययोनि केवल स्वभावको शुद्ध बनानेके लिये ही है । अतः बुरे
स्वभावको बदलकर भला बनाना मनुष्यका खास कर्तव्य है । अपने स्वभावको बदलनेमें मनुष्यमात्र
स्वतन्त्र है । धनी बनने, ऊँचा पद प्राप्त करने आदिमें उसकी ऐसी स्वतन्त्रता नहीं है,
जैसी अपने स्वभावको शुद्ध बनानेमें है । अगर मनुष्य अच्छा संग
करे,
अच्छी पुस्तकें पढ़े, स्वभाव सुधारनेका उद्योग करे तो वह अपने स्वभावको बहुत जल्दी
और सुगमतापूर्वक शुद्ध बना लेगा । परन्तु अगर वह कुसंग करेगा,
खराब पुस्तकें पढ़ेगा, बुरे विचारोंको प्रोत्साहित करेगा तो वह बुरे स्वभाववाला बन
जायगा । |
Aug
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