Listen भगवान्की ओर चलनेवाले मनुष्य भगवान्का और उनके दया,
क्षमा, समता आदि गुणोंका (दैवी सम्पत्तिका) आश्रय लेते हैं तथा परिणाममें
भगवान्को प्राप्त कर लेते हैं । अतः गीतामें ‘मामुपाश्रिताः’ (४ । १०) ‘मदाश्रयः’
(७ । १);
‘मामेव ये प्रपद्यन्ते’
(७ । १४);
‘मामाश्रित्य यतन्ति ये’
(७ । २९);
‘मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य’
(९ । ३२) ‘मद्व्यपाश्रयः’
(१८ । ५६) ‘तमेव
शरणं गच्छ’ (१८ । ६२); ‘मामेकं शरणं ब्रज’
(१८ । ६६) आदि पदोंमें भगवान्के
आश्रयकी बात कहा गयी है; और ‘देवीं प्रकृतिमाश्रिताः’ (९ । १३) तथा ‘बुद्धियोगमुपाश्रित्य’ (१८ । ५७) पदोंमें दैवी सम्पत्तिके आश्रयकी बात कही गयी है ।[*] तात्पर्य है कि गीतामें जितने भी साधन बताये गये हैं,
उन सबमें श्रेष्ठ और सुगम साधन भगवान्का आश्रय लेना ही है ।
जो भगवान्का आश्रय लेकर साधन करता है, उसके
साधनकी सिद्धि बहुत शीघ्र और सुगमतापूर्वक हो जाती है । इस बातको भगवान्ने गीतामें स्पष्ट शब्दोंमें कहा है कि जो
मेरे आश्रित होकर सम्पूर्ण कर्मोंको मेरेमें अर्पण करते हैं,
उन भक्तोंका मैं मृत्युरूप संसार-समुद्रसे बहुत जल्दी उद्धार
करनेवाला बन जाता हूँ (१२ । ६-७) । जो मेरा आश्रय लेकर यत्न करते हैं,
वे ब्रह्म, अध्यात्म और सम्पूर्ण कर्म तथा अधिभूत,
अधिदैव और अधियज्ञ-सहित मेरेको जान जाते हैं अर्थात् मेरे समग्र
रूपको जान जाते हैं (७ । २९-३०) । अपना आश्रय लेनेवाले भक्तोंको भगवान्ने सम्पूर्ण
योगियोंमें श्रेष्ठ बताया है (६ । ४७) । अतः साधकोंको चाहिये
कि वे जो भी साधन करें, भगवान्का आश्रय लेकर ही करें । यह स्वयं परमात्माका अंश है और स्थूल,
सूक्ष्म तथा कारण-शरीर प्रकृतिके अंश हैं । क्रिया और पदार्थका
जो आश्रय है, वह स्थूलशरीरका आश्रय है (स्थूलशरीरसे भी दूर धन,
मकान, बेटे-पोते, कुटुम्बी, जमीन-जायदाद आदिका जो आश्रय है, वह तो बहुत ही जड़ताका आश्रय
है) । विद्याका, अपनी योग्यताका, अपने सद्गुणोंका, अपनी बुद्धिका जो आश्रय है तथा चिन्तनका, ध्यानका,
मननका जो आश्रय है, वह सब सूक्ष्मशरीरका आश्रय है । जिसमें व्युत्थान होता है,
उस समाधिका आश्रय लेना कारणशरीरका आश्रय है;
और समाधि-अवस्थामें जो सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, अपनेमें
जो महत्ता प्रतीत होती है, वह समाधिके कार्यका आश्रय है । ये सभी आश्रय नाशवान्के हैं । जप-ध्यान, कथा-कीर्तन आदिका आश्रय साधनका आश्रय है । ‘मैं
भगवान्का ही हूँ’‒इस प्रकार एकमात्र भगवान्से सम्बन्ध जोड़ना साध्य (भगवान्)-का आश्रय
है । साधनका आश्रय लेनेसे साधन करना पड़ता है, पर साध्यका आश्रय लेनेसे साधन स्वतः-स्वाभाविक होता
है, करना
नहीं पड़ता । नाशवान्का आश्रय सर्वथा छूटते ही भगवत्प्राप्तिका अनुभव स्वतः हो जाता
है । कारण कि भगवान् तो नित्यप्राप्त ही हैं, केवल नाशवान्का आश्रय ही उनके अनुभवमें बाधक है
। नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
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Oct
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