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।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   कार्तिक शुक्ल दशमी, वि.सं.-२०७९, गुरुवार

गीताका गोपनीय विषय



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पुरोऽर्जुनस्य कृष्णेन स्वात्मा हि प्रकटीकृतः ।

विषयो गोपनीयोऽयं  गीताया मन्यते बुधैः ॥

भगवान्‌के द्वारा आत्मीय भक्त अर्जुनके सामने अपने-आपको प्रकट करना ही गीताका मुख्य गोपनीय विषय है । भगवान्‌ अवतार लेकर अपने-आपको छिपाते हैं, सबके सामने अपनी भगवत्ता प्रकट नहीं करते (७ । २५); परन्तु अपने अन्तरंग प्यारे भक्तोंके सामने वे छिप ही नहीं सकते, अपने-आपको प्रकट कर ही देते हैं ।

भगवान्‌ने गीतामें अपने प्यारे भक्त अर्जुनके सामने अपनी भगवत्ता, महत्ता, प्रभुताकी बहुत-सी बातें कही हैं; जैसे‒

इस योग (कर्मयोग)-को मैंने पहले सूर्यसे कहा था । फिर सूर्यने मनुसे और मनुने इक्ष्वाकुसे कहा । इस प्रकार परम्परासे प्राप्‍त इस योगको समस्त राजर्षियोंने काममें लिया । परन्तु इसको जाननेवाले न होनेसे बहुत कालसे यह योग लुप्‍तप्राय हो गया है । उसी इस पुरातन योगको मैंने तेरेसे कहा है, यह बड़े रहस्यकी बात है । तात्पर्य है कि जिसने पहले सूर्यको उपदेश दिया, वही मैं आज तुझे उपदेश दे रहा हूँ‒यह अत्यन्त गोपनीय बात है (४ । १३) ।

मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हो गये हैं; उन सबको मैं जानता हूँ, तू नहीं (४ । ५) । मैं अजन्मा, अव्ययात्मा और सम्पूर्ण प्राणियोंका स्वामी रहता हुआ ही प्रकृतिको अपने वशमें करके प्रकट होता हूँ (४ । ६) । मैं ही धर्मकी स्थापना, भक्तोंकी रक्षा और दुष्टोंका विनाश करनेके लिये युग-युगमें अवतार लेता हूँ (४ । ७-८) । महासर्गके आदिमें मैंने ही चारों वणोंकी रचना की है । रचना करनेपर भी मैं अकर्ता ही रहता हूँ (४ । १३) । मेरेको सम्पूर्ण यज्ञों तथा तपोंका भोक्ता, सम्पूर्ण लोकोंका महान् ईश्‍वर और सम्पूर्ण प्राणियोंका सुहृद् जानकर मनुष्य शान्तिको प्राप्‍त हो जाता है (५ । २९) । जो मेरेको सबमें और सबको मेरेमें देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और मेरे लिये वह अदृश्य नहीं होता (६ । ३०) ।

इस संसारका मेरे सिवाय दूसरा कोई कारण नहीं है । यह सम्पूर्ण संसार मेरेमें ही ओतप्रोत है । जलमें रस, चन्द्र-सूर्यमें प्रभा आदिमें कारणरूपसे मैं ही हूँ । सात्त्विक, राजस और तामस भाव मेरेसे ही होते हैं; परन्तु मैं उनमें और वे मेरेमें नहीं है अर्थात् सब कुछ मैं-ही-मैं हूँ (७ । ७१२) । मैं सम्पूर्ण संसारमें व्याप्‍त हूँ और सम्पूर्ण प्राणी मेरेमें स्थित हैं, पर मैं उन प्राणियोंमें नहीं हूँ और वे प्राणी मेरेमें नहीं हैं‒यह मेरा ईश्‍वर-सम्बन्धी योग (सामर्थ्य) देख (९ । ४-५) । महाप्रलयमें सम्पूर्ण प्राणी मेरी प्रकृतिको प्राप्‍त होते हैं और महासर्गके आदिमें मैं फिर उनकी रचना करता हूँ (९ । ७) ।