।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
 कार्तिक शुक्ल एकादशी, वि.सं.-२०७९, शुक्रवार

गीताका गोपनीय विषय



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इस सम्पूर्ण जगत्‌का माता, धाता, पिता, पितामह आदि मैं ही हूँ (९ । १७) । सत्-असत्, जड़-चेतन आदि जो कुछ है, वह सब मैं ही हूँ (९ । १९) । मैं ही अनन्यभक्तोंका योगक्षेम वहन करता हूँ (९ । २२) । मैं ही सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता तथा सम्पूर्ण जगत्‌का मालिक हूँ; परन्तु जो मेरेको तत्त्वसे नहीं जानते, उनका पतन हो जाता है (९ । २४) । मैं सम्पूर्ण प्राणियोंमें समान हूँ । कोई भी प्राणी मेरे राग-द्वेषका विषय नहीं है; परन्तु जो भक्तिपूर्वक मेरा भजन करते हैं, मैं उनमें और वे मेरेमें विशेषतासे हैं (९ । २९) ।

मेरे प्रकट होनेको न देवता जानते हैं और न महर्षि ही; क्योंकि मैं सब तरहसे देवताओं और महर्षियोंका भी आदि हूँ (१० । २) । प्राणियोंके बुद्धि, ज्ञान आदि भाव मेरेसे ही होते हैं (१० । ४-५) । मैं ही सबका मूल कारण हूँ और मेरेसे ही सब सत्ता-स्फूर्ति पाते हैं (१० । ८) । मैं ही भक्तोंपर कृपा करके उनके अज्ञानजन्य अन्धकारका नाश कर देता हूँ (१० । ११) ।

सम्पूर्ण प्राणियोंका बीज मैं ही हूँ । मेरे बिना कोई भी प्राणी नहीं है (१० । ३९) । मैं अपने किसी एक अंशमें सम्पूर्ण संसारको व्याप्‍त करके स्थित हूँ (१० । ४२) । तू अपने इन चर्मचक्षुओंसे मेरे विराट्‌रूपको नहीं देख सकता; अतः मैं तुझे दिव्यचक्षु देता हूँ; जिससे तू मेरे इस ईश्‍वर-सम्बन्धी योग (प्रभाव)-को देख (११ । ८) । मैं सम्पूर्ण प्राणियोंका क्षय करनेके लिये बढ़ा हुआ काल हूँ और यहाँ इन सम्पूर्ण योद्धाओंका नाश करनेके लिये आया हूँ । तेरे युद्ध किये बिना भी यहाँ कोई नहीं बचेगा । इन सबको मैंने पहलेसे ही मार रखा है । अतः तू निमित्तमात्र बनकर युद्ध कर, तेरी विजय होगी (११ । ३२३४) ।

मेरे परायण हुए जो भक्त सम्पूर्ण कर्मोंको मेरेमें अर्पण करके अनन्यभावसे मेरा भजन करते हैं, उनका मैं स्वयं संसार-सागरसे उद्धार करनेवाला बन जाता हूँ (१२ । ६-७) । जो अव्यभिचारिणी भक्तिसे मेरा भजन करता है, वह गुणोंसे अतीत हो जाता है (१४ । २६) । मैं ही ब्रह्म, अविनाशी, अमृत, शाश्‍वतधर्म और ऐकान्तिक सुखका आश्रय हूँ (१४ । २७) । चन्द्र, सूर्य और अग्‍निमें मेरा ही तेज है । मैं ही अपने ओजसे पृथ्वीको धारण करता हूँ । मैं ही वैश्‍वानररूपसे प्राणियोंके खाये हुए अन्‍नको पचाता हूँ । मैं सबके हदयमें रहता हूँ । सम्पूर्ण वेदोंमें जाननेयोग्य मैं ही हूँ (१५ । १२१५) । मैं क्षरसे अतीत और अक्षरसे उत्तम हूँ; अतः वेदमें और शास्त्रमें मैं ही पुरुषोत्तम नामसे प्रसिद्ध हूँ (१५ । १८) । जो अनन्यभावसे मेरा ही भजन करता है, वह सर्ववित् है (१५ । १९) । मैंने यह अत्यन्त गोपनीय शास्त्र कहा है, जिसको जानकर मनुष्य ज्ञानवान, और कृतकृत्य हो जाता है (१५ । २०) ।

मनुष्य सम्पूर्ण कर्मोंको सदा करता हुआ भी मेरी कृपासे अविनाशी पदको प्राप्‍त हो जाता है (१८ । ५६) । तू मेरे परायण होकर सम्पूर्ण कर्मोंको मेरे अर्पण कर दे तो तू मेरी कृपासे सम्पूर्ण विघ्‍न-बाधाओंको तर जायगा (१८ । ५७-५८) । तू सम्पूर्ण धर्मोंका आश्रयोंको छोड़कर केवल एक मेरी शरणमें आ जा । मैं तेरेको सम्पूर्ण पापोंसे मुक्‍त कर दूँगा, तू चिन्ता मत कर (१८ । ६६) ।

‒इस प्रकार भगवान्‌ने रहस्यकी, अपने-आपको भक्तोंके सामने प्रकट करनेकी जितनी भी बातें कही हैं, वे सभी गोपनीय विषय हैं ।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !