Listen इस सम्पूर्ण जगत्का माता, धाता, पिता, पितामह आदि मैं ही हूँ (९ । १७) । सत्-असत्, जड़-चेतन आदि जो
कुछ है,
वह सब मैं ही हूँ (९ । १९) । मैं ही अनन्यभक्तोंका योगक्षेम
वहन करता हूँ (९ । २२) । मैं ही सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता तथा सम्पूर्ण जगत्का मालिक
हूँ; परन्तु जो मेरेको तत्त्वसे नहीं जानते, उनका पतन हो जाता है (९ । २४) । मैं सम्पूर्ण प्राणियोंमें समान
हूँ । कोई भी प्राणी मेरे राग-द्वेषका विषय नहीं है; परन्तु जो भक्तिपूर्वक मेरा भजन करते हैं,
मैं उनमें और वे मेरेमें विशेषतासे हैं (९ । २९) । मेरे प्रकट होनेको न देवता जानते हैं और न महर्षि ही;
क्योंकि मैं सब तरहसे देवताओं और महर्षियोंका भी आदि हूँ (१०
। २) । प्राणियोंके बुद्धि, ज्ञान आदि भाव मेरेसे ही होते हैं (१० । ४-५) । मैं ही सबका
मूल कारण हूँ और मेरेसे ही सब सत्ता-स्फूर्ति पाते हैं (१० । ८) । मैं ही भक्तोंपर
कृपा करके उनके अज्ञानजन्य अन्धकारका नाश कर देता हूँ (१० । ११) । सम्पूर्ण प्राणियोंका बीज मैं ही हूँ । मेरे बिना कोई भी प्राणी
नहीं है (१० । ३९) । मैं अपने किसी एक अंशमें सम्पूर्ण संसारको व्याप्त करके स्थित
हूँ (१० । ४२) । तू अपने इन चर्मचक्षुओंसे मेरे विराट्रूपको नहीं देख सकता;
अतः मैं तुझे दिव्यचक्षु देता हूँ;
जिससे तू मेरे इस ईश्वर-सम्बन्धी योग (प्रभाव)-को देख (११ ।
८) । मैं सम्पूर्ण प्राणियोंका क्षय करनेके लिये बढ़ा हुआ काल हूँ और यहाँ इन सम्पूर्ण
योद्धाओंका नाश करनेके लिये आया हूँ । तेरे युद्ध किये बिना भी यहाँ कोई नहीं बचेगा
। इन सबको मैंने पहलेसे ही मार रखा है । अतः तू निमित्तमात्र बनकर युद्ध कर,
तेरी विजय होगी (११ । ३२‒३४) । मेरे परायण हुए जो भक्त सम्पूर्ण कर्मोंको मेरेमें अर्पण करके
अनन्यभावसे मेरा भजन करते हैं, उनका मैं स्वयं संसार-सागरसे उद्धार करनेवाला बन जाता हूँ (१२
। ६-७) । जो अव्यभिचारिणी भक्तिसे मेरा भजन करता है, वह गुणोंसे अतीत हो जाता है (१४ । २६) । मैं ही ब्रह्म,
अविनाशी, अमृत, शाश्वतधर्म और ऐकान्तिक सुखका आश्रय हूँ (१४ । २७) । चन्द्र,
सूर्य और अग्निमें मेरा ही तेज है । मैं ही अपने ओजसे पृथ्वीको
धारण करता हूँ । मैं ही वैश्वानररूपसे प्राणियोंके खाये हुए अन्नको पचाता हूँ । मैं
सबके हदयमें रहता हूँ । सम्पूर्ण वेदोंमें जाननेयोग्य मैं ही हूँ (१५ । १२‒१५) । मैं क्षरसे अतीत और अक्षरसे उत्तम हूँ;
अतः वेदमें और शास्त्रमें मैं ही पुरुषोत्तम नामसे प्रसिद्ध
हूँ (१५ । १८) । जो अनन्यभावसे मेरा ही भजन करता है, वह सर्ववित् है (१५ । १९) । मैंने यह अत्यन्त गोपनीय शास्त्र
कहा है,
जिसको जानकर मनुष्य ज्ञानवान, और कृतकृत्य हो जाता है (१५ । २०) । मनुष्य सम्पूर्ण कर्मोंको सदा करता हुआ भी मेरी कृपासे अविनाशी
पदको प्राप्त हो जाता है (१८ । ५६) । तू मेरे परायण होकर सम्पूर्ण कर्मोंको मेरे अर्पण
कर दे तो तू मेरी कृपासे सम्पूर्ण विघ्न-बाधाओंको तर जायगा (१८ । ५७-५८) । तू सम्पूर्ण
धर्मोंका आश्रयोंको छोड़कर केवल एक मेरी शरणमें आ जा । मैं तेरेको सम्पूर्ण पापोंसे
मुक्त कर दूँगा, तू चिन्ता मत कर (१८ । ६६) । ‒इस प्रकार भगवान्ने रहस्यकी, अपने-आपको भक्तोंके सामने प्रकट करनेकी जितनी भी बातें कही हैं, वे सभी गोपनीय विषय हैं ।
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! |