।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
 कार्तिक शुक्ल द्वादशी, वि.सं.-२०७९, शनिवार

गीतामें साधकोंकी दो दृष्टियाँ



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गीतायां द्विविधा दृष्टिर्दृश्यते ज्ञानिभक्तयोः ।

ज्ञानी  गुणमयं  सर्वं  भक्तः  प्रभुमयं  जगत् ॥

(१)

परमात्मा और संसारका वर्णन गीतामें विविध प्रकारसे हुआ है । वह विविध प्रकार भी साधकोंकी दृष्टिसे ही है । जिन साधकोंकी दृष्टिमें सब कुछ भगवान्‌ ही हैं, भगवान्‌के सिवाय कुछ है ही नहीं, वे भक्तियोगीकहलाते हैं । जिन साधकोंकी दृष्टिमें सब संसार गुणमय है, प्रकृतिजन्य गुणोंके सिवा कुछ है ही नहीं, वे ‘ज्ञानयोगीकहलाते हैं । इस तरह साधकोंकी दो दृष्टियाँ हैं‒भक्तिदृष्टि और ज्ञानदृष्टि । श्रद्धा-विश्‍वासकी मुख्यतासे भक्तियोग चलता है और विवेक-विचारकी मुख्यतासे ज्ञानयोग चलता है ।

भक्तियोगमें भक्त ऐसा मानता है कि सब कुछ भगवान्‌ ही हैं‒‘वासुदेवः सर्वम्’ (७ । १९) । भगवान्‌ने भी कहा है कि मेरे बिना कोई भी चर-अचर प्राणी नहीं है अर्थात् चर-अचर सब कुछ मैं ही हूँ (१० । ३९) । सूतसे बनी हुई मालाकी तरह यह सब संसार मुझमें ही ओतप्रोत है (७ । ७) । ये सात्त्विक, राजस और तामस भाव भी मेरेसे ही होते हैं, पर मैं उनमें और वे मेरेमें नहीं हैं अर्थात् सब कुछ मैं-ही-मैं हूँ (७ । १२) । सत् और असत् अर्थात् जड़ और चेतन जो कुछ है, वह सब मैं ही हूँ (९ । १९) । बुद्धि, ज्ञान, असम्मोह आदि भाव मेरेसे ही होते हैं (१० । ४-५) । मैं सबका प्रभव अर्थात् मूल कारण हूँ और सब मेरेसे ही चेष्टा करते हैं (१० । ८) । दसवें अध्यायमें भगवान्‌ने अर्जुनसे कहा कि तेरेको जहाँ-कहीं, जिस-किसीमें महत्ता, विलक्षणता, अलौकिकता आदि दीखे उसको मेरी ही समझ (१० । ४१) । तात्पर्य है कि वहाँ महत्ता आदिके रूपमें मैं ही हूँ‒ऐसा मानकर तेरी दृष्टि केवल मेरी तरफ ही जानी चाहिये ।

ज्ञानयोगमें साधक ऐसा मानता है कि प्रकृतिजन्य गुणोंके द्वारा ही सब क्रियाएँ हो रही हैं (३ । २७); गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं (३ । २८, १४ । २३) । इसी दृष्टिसे भगवान्‌ने अठारहवें अध्यायमें सत्त्व, रज और तम‒इन तीनों गुणोंके अनुसार ज्ञान, कर्म, कर्ता, बुद्धि, घृति और सुखके तीन-तीन भेद बताये और अन्तमें तीनों गुणोंके प्रकारका उपसंहार करते हुए कहा कि त्रिलोकीमें तीनों गुणोंके सिवाय कुछ नहीं है; जो कुछ दीख रहा है, वह सब त्रिगुणात्मक है (१८ । ४०) ।

(२)

गीतामें भगवान्‌ने एक स्थानपर यह कहा है कि सात्त्विक, राजस और तामस भाव मेरेसे ही होते हैं (७ । १२) और दूसरे स्थानपर कहा है कि सत्त्व, रज और तम‒ये तीनों गुण प्रकृतिसे उत्पन्‍न होते हैं (१३ । १९; १४ । ५) । इनमें पहली बात तो भक्तिमार्गकी है और दूसरी बात ज्ञानमार्गकी है । भक्तिमार्गमें भगवान्‌के सिवाय गुणोंकी, भावोंकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं होती अर्थात् गुण, पदार्थ, क्रिया आदि सब भगवत्स्वरूप ही होते हैं । इसलिये भगवान्‌ने गुणोंको अपनेसे उत्पन्‍न बताया है । ज्ञानमार्गमें निर्गुण ब्रह्मकी उपासना होती है । निर्गुण ब्रह्म गुणोंसे अतीत है, निर्लेप है, निष्क्रिय है, निराकार है; अतः उसमें प्रकृति और प्रकृतिजन्य गुणोंकी किंचिन्मात्र भी सम्भावना नहीं है । इसलिये भगवान्‌ने गुणोंको प्रकृतिसे उत्पन्‍न बताया है । तात्पर्य यह हुआ कि गुणोंको चाहे भगवान्‌से उत्पन्‍न हुआ मानें अथवा प्रकृतिसे उत्पन्‍न हुआ मानें, उनका हमारे साथ सम्बन्ध नहीं है ।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !