Listen गीतायां
द्विविधा दृष्टिर्दृश्यते ज्ञानिभक्तयोः । ज्ञानी गुणमयं
सर्वं भक्तः प्रभुमयं
जगत् ॥ (१) परमात्मा और संसारका वर्णन गीतामें विविध प्रकारसे हुआ है ।
वह विविध प्रकार भी साधकोंकी दृष्टिसे ही है । जिन साधकोंकी दृष्टिमें सब कुछ भगवान्
ही हैं,
भगवान्के सिवाय कुछ है ही नहीं,
वे ‘भक्तियोगी’ कहलाते हैं । जिन साधकोंकी दृष्टिमें सब संसार गुणमय है,
प्रकृतिजन्य गुणोंके सिवा कुछ है ही नहीं,
वे ‘ज्ञानयोगी’ कहलाते हैं । इस तरह साधकोंकी दो दृष्टियाँ हैं‒भक्तिदृष्टि
और ज्ञानदृष्टि । श्रद्धा-विश्वासकी मुख्यतासे भक्तियोग चलता है और विवेक-विचारकी मुख्यतासे ज्ञानयोग चलता है । भक्तियोगमें भक्त ऐसा मानता है कि सब कुछ भगवान् ही हैं‒‘वासुदेवः सर्वम्’ (७ । १९) । भगवान्ने भी कहा है कि मेरे
बिना कोई भी चर-अचर प्राणी नहीं है अर्थात् चर-अचर सब कुछ मैं ही हूँ (१० । ३९) । सूतसे
बनी हुई मालाकी तरह यह सब संसार मुझमें ही ओतप्रोत है (७ । ७) । ये सात्त्विक,
राजस और तामस भाव भी मेरेसे ही होते हैं,
पर मैं उनमें और वे मेरेमें नहीं हैं अर्थात् सब कुछ मैं-ही-मैं
हूँ (७ । १२) । सत् और असत् अर्थात् जड़ और चेतन जो कुछ है,
वह सब मैं ही हूँ (९ । १९) । बुद्धि,
ज्ञान, असम्मोह आदि भाव मेरेसे ही होते हैं (१० । ४-५) । मैं सबका प्रभव
अर्थात् मूल कारण हूँ और सब मेरेसे ही चेष्टा करते हैं (१० । ८) । दसवें अध्यायमें
भगवान्ने अर्जुनसे कहा कि तेरेको जहाँ-कहीं, जिस-किसीमें महत्ता, विलक्षणता, अलौकिकता आदि दीखे उसको मेरी ही समझ (१० । ४१) । तात्पर्य है
कि वहाँ महत्ता आदिके रूपमें मैं ही हूँ‒ऐसा मानकर तेरी दृष्टि केवल मेरी तरफ ही जानी
चाहिये । ज्ञानयोगमें साधक ऐसा मानता है कि प्रकृतिजन्य गुणोंके द्वारा
ही सब क्रियाएँ हो रही हैं (३ । २७); गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं (३ । २८, १४ । २३) । इसी दृष्टिसे
भगवान्ने अठारहवें अध्यायमें सत्त्व, रज और तम‒इन तीनों गुणोंके अनुसार ज्ञान,
कर्म, कर्ता, बुद्धि, घृति और सुखके तीन-तीन भेद बताये और अन्तमें तीनों गुणोंके प्रकारका
उपसंहार करते हुए कहा कि त्रिलोकीमें तीनों गुणोंके सिवाय कुछ नहीं है;
जो कुछ दीख रहा है, वह सब त्रिगुणात्मक है (१८ । ४०) । (२) गीतामें भगवान्ने एक स्थानपर यह कहा है कि सात्त्विक,
राजस और तामस भाव मेरेसे ही होते हैं (७ । १२) और दूसरे स्थानपर
कहा है कि सत्त्व, रज और तम‒ये तीनों गुण प्रकृतिसे उत्पन्न होते हैं (१३ । १९;
१४ । ५) । इनमें पहली बात तो भक्तिमार्गकी है और दूसरी बात ज्ञानमार्गकी
है । भक्तिमार्गमें भगवान्के सिवाय गुणोंकी, भावोंकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं होती अर्थात् गुण, पदार्थ,
क्रिया आदि सब भगवत्स्वरूप ही होते हैं । इसलिये भगवान्ने गुणोंको
अपनेसे उत्पन्न बताया है । ज्ञानमार्गमें निर्गुण ब्रह्मकी उपासना होती है । निर्गुण
ब्रह्म गुणोंसे अतीत है, निर्लेप है, निष्क्रिय है, निराकार है; अतः उसमें प्रकृति और प्रकृतिजन्य गुणोंकी किंचिन्मात्र भी सम्भावना
नहीं है । इसलिये भगवान्ने गुणोंको प्रकृतिसे उत्पन्न बताया है । तात्पर्य यह हुआ कि गुणोंको चाहे भगवान्से उत्पन्न हुआ मानें
अथवा प्रकृतिसे उत्पन्न हुआ मानें, उनका हमारे साथ सम्बन्ध नहीं है ।
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! |