Listen साध्यसाधनयोः
प्रोक्तं सौलभ्यं हरिणा स्वयम् । मोहितं हि
विना तस्मादनुत्साही भवेत्तु कः ॥ गीतामें साधकोंकी दृष्टिसे साध्यके दो भेद माने जा सकते हैं‒ (१) सगुण‒सगुणकी उपासनामें अनन्यभावकी मुख्यता होती है । अनन्यभाववाले
भक्तोंके लिये भगवान् सुलभ हैं । वह अनन्यभाव क्या है ?
अन्यका न होना । अन्य क्या है ?
भगवान्के सिवाय धन, सम्पत्ति, वैभव, घटना, परिस्थिति, स्त्री, पुत्र, परिवार, मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, शरीर आदि जो कुछ भी है, वह सब ‘अन्य’ है । उन सबसे विमुख होकर अर्थात् उनके
आश्रयका, महत्त्वका, प्रियताका त्याग करके केवल भगवान्के सम्मुख हो जाना, भगवान्की
शरण हो जाना और उनमें ही महत्त्व, प्रियताका हो जाना ‘अनन्यभाव’ है
। मैं भगवान्का ही हूँ और भगवान् ही मेरे हैं,
मैं संसारका नहीं हूँ और संसार मेरा नहीं है‒इस तरह
अपनी कहलानेवाली वस्तु, शरीर आदिको और अपने-आपको भी भगवान्के अर्पण कर देना ‘अनन्यभाव’ है
। अनन्यभावसे भगवान् सुलभ हो
जाते हैं (८ । १४), भक्तोंके योगक्षेमका वहन करते हैं (९ । २२), भक्तोंका बहुत जल्दी
मृत्युरूपी संसार-सागरसे उद्धार कर देते हैं (१२ । ७) । इसी अनन्यभावसे भक्त भगवान्को
देख सकते हैं, जान सकते हैं और प्राप्त कर सकते हैं (११ । ५४) । इसलिये भगवान् कहते हैं कि
तुम मेरेमें ही मन और बुद्धिको लगा दो, फिर तुम मेरेमें ही निवास करोगे (१२ । ८);
तुम मेरेमें ही मन और बुद्धिको अर्पण कर दो,
फिर तुम निःसंदेह मेरेको प्राप्त हो जाओगे (८ । ७) । (२) निर्गुण‒निर्गुणकी उपासनामें विवेककी मुख्यता होती है । इसमें विवेकपूर्वक
जड़ताका त्याग होता है । निर्गुणोपासकको भी परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति सुगमतासे हो जाती
है (४ । ३९; ६ । २८ आदि) । साधनके भी तीन भेद माने जाते हैं‒ (१) कर्मयोग‒जो भी परिस्थिति कर्तव्यरूपसे सामने
आ जाय, उस कर्तव्यको तत्परतासे करना और उस कर्मके फलकी इच्छाका
त्याग कर देना‒इसमें क्या कठिनता है ? कारण कि कर्तव्य नाम ही उसीका है, जो
करनेयोग्य है और जिसको सुगमतासे कर सकते हैं । ऐसे प्राप्त कर्तव्यका पालन करनेकी बात भगवान्ने दूसरे अध्यायके
सैंतालीसवें श्लोकमें बतायी है । (२) ज्ञानयोग‒यह शरीर प्रतिक्षण बदल रहा है, मृत्युकी
ओर जा रहा है; क्योंकि यह असत् है । पर इस असत्को जाननेवाला अर्थात्
शरीर-संसारके परिवर्तनको, उत्पन्न और नष्ट होनेको जाननेवाला सत् है‒ऐसा जाननेमें क्या
कठिनता है ? इस बातको प्रायः सभी आस्तिकलोग जानते हैं कि यह शरीर तो मरेगा
ही,
पर इस शरीरमें रहनेवाला तो रहेगा ही । इसी बातको भगवान्ने दूसरे
अध्यायके ग्यारहवें श्लोकसे तीसवें श्लोकतक विस्तारपूर्वक कहा है । (३) भक्तियोग‒जिसके पास भगवान्को अर्पण करनेके लिये बढ़िया-बढ़िया पदार्थ
नहीं है,
वह केवल पत्र, पुष्प, फल, जल आदिको ही प्रेमपूर्वक भगवान्के अर्पण कर दे तो भगवान् ‘यह पत्ता है, यह फूल है, इन्हें मैं कैसे खाऊँ ?’ ऐसा कुछ भी विचार न करके उनको खा लेते
हैं (९ । २६) । परन्तु किसीके पास ये पत्र, पुष्प
आदि भी न हो तो जो कुछ भी क्रिया करता है अर्थात् खाना-पीना, चलना-फिरना, उठना-बैठना,
यज्ञ, तप
आदि जो कुछ भी करता है, उन सबको भगवान्के अर्पण कर दे (९ । २७) । ऐसा करनेसे वह सम्पूर्ण
शुभ-अशुभ कर्मोंसे, कर्मबन्धनोंसे मुक्त होकर भगवान्को प्राप्त हो
जाता है (९ । २८) । इससे अधिक सुगमता और क्या हो सकती है ?
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! |