Listen वरं
कर्मत्यागाज्जगति सततं कर्मकरणं स्वधर्मो
हि श्रेयान् सगुणपरधर्माच्च विगुणः । वरं
क्षेत्रज्ञानं द्रविणमययज्ञाद्धि शतश- स्तपस्विज्ञानिभ्यः समनिरतयोगी वरतमः ॥ ज्ञानध्यानादितः
कर्मफलत्यागो विशिष्यते । सर्वेभ्यः साधनेभ्यश्च प्रभुभक्तिर्गरीयसी ॥ गीतामें परमात्मप्राप्तिके लिये बहुत-से साधन बताये गये हैं
और उनको श्रेष्ठ भी बताया गया है । जिस साधनमें साधककी रुचि,
विश्वास और योग्यता है, वही साधन उस साधकके लिये श्रेष्ठ है;
क्योंकि उसी साधनको करनेसे उसको परमात्माकी प्राप्ति हो जाती
है । गीतामें जहाँ-कहीं जिस-किसी साधनको श्रेष्ठ बताया गया है,
वह श्रेष्ठता वहाँके प्रसंग या अधिकारको लेकर बतायी गयी है ।
बहुत-से साधनोंके श्रेष्ठ होनेपर भी भगवान्ने सर्वश्रेष्ठ
साधन भक्तिको ही माना है । गीताके अनुसार कर्म न करनेकी अपेक्षा अपने कर्तव्यका पालन करना
श्रेष्ठ है (३ । ८); क्योंकि जबतक मनुष्यका प्रकृति (शरीर)-के साथ
सम्बन्ध है, तबतक वह कर्म किये बिना नहीं रह सकता । वह शरीर,
मन और वाणीसे कुछ-न-कुछ कर्म तो करेगा ही । अगर वह कर्तव्य-कर्म
नहीं करेगा तो अकर्तव्य करेगा, विपरीत काम करेगा, जिससे वह बँध जायगा । अतः कर्म न करनेकी अपेक्षा कर्तव्य-कर्म
करना श्रेष्ठ है । शास्त्रोंने वर्णाश्रमके अनुसार जिस मनुष्यके लिये जिस कर्मको
करनेकी आज्ञा दी है, उसके लिये वह स्वधर्म है; और जिस मनुष्यके लिये उस कर्मको करनेका निषेध किया है,
उसके लिये वह परधर्म है । अधिक गुणोंवाले परधर्मकी अपेक्षा गुणोंकी
कमीवाला भी अपना धर्म (स्वधर्म) श्रेष्ठ है । अपने धर्मका पालन करनेसे मनुष्यको पाप
नहीं लगता और अपने धर्मका पालन करते हुए मृत्यु भी हो जाय तो भी अपना धर्म कल्याण करनेवाला
है (१८ । ४७; ३ । ३५) । द्रव्यमय यज्ञसे ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है (४ । ३३) । कारण कि द्रव्ययज्ञमें
पदार्थ,
व्यक्ति, देश, काल, परिस्थिति, अवस्था आदिकी आवश्यकता रहती है और इनके द्वारा ही द्रव्ययज्ञ
पूरा होता है; अतः द्रव्ययज्ञमें परतन्त्रता है । परन्तु ज्ञानयज्ञमें पदार्थ,
व्यक्ति आदिकी आवश्यकता नहीं होती;
अतः ज्ञानयज्ञमें स्वतन्त्रता रहती है । इसलिये ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ
है ।
तपस्वी, ज्ञानी और कर्मीसे समतायुक्त मनुष्य श्रेष्ठ है (६ । ४६) । कारण यह है कि तपस्वी, ज्ञानी और कर्मीमें सकामभाव है; तपस्वी तपस्या करके अणिमादि सिद्धियाँ चाहता है, ज्ञानी शास्त्रका ज्ञान सम्पादन करके मान-बड़ाई, सुख-आराम चाहता है और कर्मी कर्म करके धन, संग्रह, भोग, स्वर्ग आदि चाहता है । परन्तु समतायुक्त मनुष्य कुछ भी नहीं चाहता; अतः वह तीनोंसे श्रेष्ठ है । |