।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
      कार्तिक पूर्णमा, वि.सं.-२०७९, मंगलवार

गीतामें सर्वश्रेष्ठ साधन



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अभ्याससे ज्ञान, ज्ञानसे ध्यान और ध्यानसे सर्वकर्मफलत्याग श्रेष्ठ है (१२ । १२) क्योंकि अभ्यास, ज्ञान और ध्यानमें समता नहीं है । समताके बिना ये तीनों ही अधूरे रह जाते हैं । सर्वकर्मफलत्यागमें समता रहती है; अतः यह श्रेष्ठ है ।

सांख्ययोगसे कर्मयोग श्रेष्ठ है (३ । ७; ५ । २) । कारण कि सांख्ययोगमें नया विचार करना पड़ता है; और तेजीका वैराग्य होनेसे, कहीं भी राग नहीं होनेसे ही कल्याण होता है । वैराग्यके बिना ज्ञान (विवेक-विचार) केवल तोतेकी तरह सीखी हुई बातोंमें रह जाता है । परन्तु कर्मयोगमें मनुष्य जिस कामको करता आया है, उसमें केवल सुधार करना है अर्थात् मनुष्यका कर्म करनेका स्वभाव तो है ही, उसमें केवल कामना-आसक्‍तिका त्याग करना है । जैसे‒पत्‍नी पतिकी, पुत्र माँ-बापकी, शिष्य गुरुकी, नौकर मालिककी और नीचे वर्णवाला ऊँचे वर्णवालेकी सेवा करते आये ही हैं; इसमें केवल अपने सुख-आराम, स्वार्थभाव, कामना-आसक्‍तिका त्याग करना है । यह त्याग करना सुगम है । अतः कर्मयोग श्रेष्ठ है ।

उपर्युक्त साधनोंसे तथा इनके अतिरिक्त गीतामें कहे हुए ध्यानयोग, लययोग, हठयोग आदि सभी साधनोंसे भक्तियोग श्रेष्ठ है (६ । ४७ ) । कारण कि दूसरे साधकोंमें अपने साधनके बलका आश्रय रहता है; अतः उनके गिरनेकी सम्भावना रहती है । परन्तु भक्तियोगी साधकमें केवल भगवान्‌का ही आश्रय रहता है, वह केवल भगवन्‍निष्ठ रहता है; अतः उसके गिरनेकी सम्भावना रहती ही नहीं । भक्तका उद्धार स्वयं भगवान्‌ करते हैं (१२ । ७) । उसके अज्ञानका नाश स्वयं भगवान्‌ करते हैं (१० । ११) । उसके योगक्षेमका वहन स्वयं भगवान्‌ करते हैं (९ । २२) । उसको भगवान्‌ सुगमतासे मिल जाते हैं (८ । १४) । वह अनन्यभक्तिसे भगवान्‌के प्रत्यक्ष दर्शन कर सकता है, भगवान्‌को तत्त्वसे जान सकता है और भगवान्‌में प्रवेश कर सकता है (११ । ५४) । तात्पर्य है कि दूसरे साधकोंमें तो कमी भी रह सकती है और अन्तसमयमें अन्यचिन्तन, मूर्च्छा आदि किसी कारणसे साधनसे विचलित होकर वे योगभ्रष्ट भी हो सकते हैं, उनका फिर दूसरा जन्म भी हो सकता है; परन्तु भक्तमें कोई कमी रह जाय तो उसको दूर करनेकी जिम्मेवारी भगवान्‌की होती है । भगवान्‌ उस कमीको दूर कर देते हैं । अन्तसमयमें भक्तको किसी कारणसे भगवान्‌की स्मृति न रहे तो स्वयं भगवान्‌ उसको याद करते हैं । अतः भक्त योगभ्रष्ट नहीं होता, उसका दूसरा जन्म नहीं होता । इसलिये भगवान्‌ने भक्तियोगको सम्पूर्ण साधनोंसे और भक्तियोगीको सम्पूर्ण साधकोंसे श्रेष्ठ बताया है (६ । ४७; १२ । २)

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !