Listen (छ) अर्जुन क्रियापरक प्रश्न
करते हैं तो भगवान् उसका भावपरक उत्तर देते हैं; जैसे‒ (१) दूसरे अध्यायके चौवनवें
श्लोकमें अर्जुनने क्रियापरक प्रश्न किये कि परमात्माको प्राप्त पुरुष कैसे बोलता
है ? कैसे बैठता है ? और कैसे चलता है ? इनका उत्तर भगवान्ने भावपरक दिया‒ वह कैसे बोलता है ? अर्थात् धीरे बोलता है या जोरसे बोलता
है ? इसके उत्तरमें भगवान्ने कहा कि उसका बोलना
ऐसा नहीं होता; किंतु वह दुःखोंकी प्राप्तिमें
उद्विग्न नहीं होता और सुखोंकी प्राप्तिमें स्पृहा नहीं करता तथा वह राग, भय और क्रोधसे रहित होता है । शुभ-अशुभ
परिस्थितियोंके आनेपर वह राग-द्वेष नहीं करता (२ । ५६- ५७) । वह कैसे बैठता है ? अर्थात्
सिद्धासनसे बैठता है या पद्मासन आदिसे बैठता है ? इसके उत्तरमें भगवान्ने कहा कि उसका बैठना
ऐसा नहीं होता; किंतु वह कछुएकी तरह अपनी
सम्पूर्ण इन्द्रियोंको उनके विषयोंसे समेट लेता है, हटा लेता है । सम्पूर्ण-इन्द्रियोंको वशमें
करके वह मेरे परायण हो जाता है (२ । ५८, ६१) । वह कैसे चलता है ? अर्थात् धीरे चलता है या तेजीसे चलता है
? इसके उत्तरमें भगवान्ने कहा कि उसका चलना
ऐसा नहीं होता; किंतु वह राग-द्वेषसे रहित
और कामना, अहंता, ममता तथा स्पृहासे रहित होकर आचरण करता
है (२ । ६४‒७१) । (२) तीसरे अध्यायके छत्तीसवें
श्लोकमें अर्जुनने पूछा कि भगवन् ! मनुष्य न चाहता हुआ भी पाप क्यों कर बैठता है ? भगवान्ने कहा कि भीतरमें कामना रहनेसे
ही पापकी क्रिया होती है (३ । ३७) । यदि भीतरमें कामना न रहे तो पापकी क्रिया हो ही
नहीं सकती और कोई क्रिया ऊपरसे पापकी दीखनेपर भी उसको पाप नहीं लगता (१८ । १७) । (३) चौदहवें अध्यायके इकीसवें
श्लोकमें अर्जुनने पूछा कि गुणातीतके क्या चिह्न (लक्षण) होते हैं ? अर्थात् उसकी आकृति, रंग-रूप कैसा होता है ? भगवान्ने कहा कि गुणोंकी वृत्तियोंके
प्रवृत्त और निवृत्त होनेपर वह इनसे न राग करता है और न द्वेष करता है अर्थात् निर्लिप्त
रहता है । वह उदासीनकी तरह रहता है और गुणोंसे विचलित न होकर अपने स्वरूपमें ही स्थित
रहता है (१४ । २२-२३) । अर्जुनने पूछा कि गुणातीतके आचरण कैसे होते हैं ? अर्थात् वह सबके साथ एकता करता है या अलग
रहता है ? छुआछूत रखता है या समान व्यवहार करता है
? भगवान्ने कहा कि उसके भीतर समभाव रहता
है अर्थात् बाहरसे शास्त्र और लोकमर्यादाके अनुसार कई तरहका आचरण करते हुए भी उसके
भीतर समता अटल बनी रहती है ( १४ । २४-२५) । अर्जुनने पूछा कि गुणातीत
होनेका क्या उपाय है ?
अर्थात् जप करना चाहिये या
ध्यान करना चाहिये ?
किसीके पास जाना चाहिये या
तीर्थोंमें जाना चाहिये ?
भगवान्ने कहा कि जो मनुष्य
अव्यभिचारी भक्तियोगसे मेरेमें लग जाता है, वह गुणोंका अतिक्रमण कर जाता है अर्थात्
गुणातीत हो जाता है (१४ । २६) ‒इस प्रकार अर्जुनके द्वारा
क्रियापरक प्रश्न करनेपर भगवान्ने उसका भावपरक उत्तर दिया है । तात्पर्य है कि भगवान् बाहरी
आचरणों, वेशभूषा, रहन-सहन, आश्रम-परिवर्तन आदिको महत्त्व नहीं देते, प्रत्युत भावको ही महत्त्व देते हैं ।
कारण कि भाव बदलनेसे क्रिया अपने-आप ठीक हो जाती है । विशेषता तो भावमें ही है, क्रियामें नहीं; क्योंकि क्रिया तो मनुष्य पाखण्डसे भी
कर सकता है ।
नारायण ! नारायण ! नारायण
! नारायण ! |
Nov
25