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।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी, वि.सं.-२०७९, शनिवार

गीतामें आये परस्पर-विरोधी

पदोंका तात्पर्य



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(९) कोई एक मेरेको तत्त्वसे जानता है (७ । ३), मेरेको कोई नहीं जानता (७ । २६)‒यह कैसे ?

सातवें अध्यायके तीसरे श्‍लोकमें साधकोंकी बात है । जो संसारसे उपराम होकर भगवान्‌में लग जाते हैं, वे भगवान्‌की कृपासे भगवान्‌को जान जाते हैं । सातवें अध्यायके छब्बीसवें श्‍लोकमें सामान्य प्राणियोंकी बात है । जो प्राणी जन्म-मृत्युके प्रवाहमें पड़े हुए हैं, उनको भगवान्‌ तो जानते हैं, पर वे प्राणी मूढ़ताके कारण भगवान्‌को नहीं जानते । तात्पर्य है कि उपर्युक्त दोनों श्‍लोकोंमें साधक-असाधकका भेद है अर्थात् तीसरे श्‍लोकमें जाननेके कर्ता साधक हैं और छब्बीसवें श्‍लोकमें जाननेके कर्ता असाधक हैं ।

(१०) यत्‍न (भजन) करनेवालोंमें कोई एक मेरेको तत्त्वसे जानता है (७ । ३); भक्त मेरेको सम्पूर्ण प्राणियोंका आदि जानकर मेरा भजन करते हैं (९ । १३), तो बिना जाने भजन कैसे ? और बिना भजन किये जानना कैसे ?

सातवें अध्यायके तीसरे श्‍लोकमें भगवान्‌को तत्त्वसे जाननेकी बात है । भगवान्‌को जानना साधकके बलसे नहीं होता, प्रत्युत भगवान्‌की कृपासे ही वह भगवान्‌को तत्त्वसे जानता है । नवें अध्यायके तेरहवें श्‍लोकमें भगवान्‌को श्रद्धा-भक्तिपूर्वक माननेकी बात है अर्थात् वहाँ श्रद्धा-भक्तिपूर्वक मानना ही जानना है । अतः भगवान्‌ सम्पूर्ण प्राणियोंके आदि हैं‒ऐसा मानकर ही वे भजन करते हैं ।

(११) सात्त्विक, राजस और तामस भाव (पदार्थ, क्रिया आदि) मेरेमें नहीं है और मैं उनमें नहीं हूँ (७ । १२); सम्पूर्ण प्राणी उस परमात्मामें हैं और परमात्मा उन प्राणियोंमें हैं (८ । २२)‒यह कैसे ?

जिन साधकोंकी दृष्टिमें भगवान्‌के सिवाय संसारकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है, उनकी दृष्टिसे कहा गया है कि सात्त्विक, राजस और तामस भाव भगवान्‌में और भगवान्‌ उनमें नहीं हैं, प्रत्युत सब कुछ भगवान्‌-ही-भगवान्‌ हैं (७ । १२) । परन्तु जिन साधकोंकी दृष्टिमें संसारकी पृथक् सत्ता है, उनकी दृष्टिसे कहा गया है कि सम्पूर्ण प्राणी परमात्मामें और परमात्मा सम्पूर्ण प्राणियोंमें हैं (८ । २२) ।

(१२) तीनों गुणोंसे सभी मोहित हैं (७ । १३); तमोगुण सबको मोहित करनेवाला है (१४ । ८)‒यह कैसे ?

सत्त्वगुणका स्वरूप निर्मल, रजोगुणका स्वरूप रागात्मक और तमोगुणका स्वरूप मोहनात्मक कहा गया है । तात्पर्य है कि जहाँ तीनों गुणोंका भेद किया गया है, वहाँ तमोगुणका स्वरूप मोहनात्मक बताया गया है । वास्तवमें तो सत्त्व, रज और तम‒ये तीनों ही गुण मोहित करनेवाले हैं । सत्त्वगुण ज्ञान और सुखकी आसक्तिसे, रजोगुण कर्मोंकी आसक्तिसे और तमोगुण स्वरूपसे ही मनुष्योंको मोहित करता है (१४ । ६‒८) । अतः जो ऊँचा-से-ऊँचा ब्रह्मलोकतकका भी सुख चाहता है, वह भी गुणोंसे मोहित है ।

(१३) जिनका ज्ञान मायाके द्वारा हरा गया है, जिन्होंने आसुरभावका आश्रय ले रखा है, ऐसे दुराचारी (पापी) भगवान्‌की शरण नहीं होते (७ । १५); दुराचारी-से-दुराचारी भी भगवान्‌की शरण होता है (९ । ३०)‒यह कैसे ?

जो वेद, शास्त्र, पुराण, भगवान्‌ और उनके सिद्धान्तसे विरुद्ध चलनेवाला है, दुर्गुणी है, दुराचारी है, ऐसे मनुष्यका स्वाभाविक भगवान्‌की तरफ चलनेका, भगवान्‌की शरण होनेका स्वभाव नहीं होता । परन्तु वह भी किसी कारणविशेषसे अर्थात् किसी संतकी कृपासे, किसी स्थान या तीर्थके प्रभावसे, किसी पूर्वपुण्यके उदय होनेसे अथवा किसी विपत्तिमें फँस जानेसे भगवान्‌की शरण हो सकता है । तात्पर्य यह है कि सामान्य रीतिसे तो पापी मनुष्य भगवान्‌की शरण नहीं होता (७ । १५), पर किसी कारणविशेषसे वह भगवान्‌की शरण हो सकता है (९ । ३०) ।