।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी, वि.सं.-२०७९, रविवार

गीतामें आये परस्पर-विरोधी

पदोंका तात्पर्य



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(१४) परमात्मा अचिन्त्य है‒अचिन्त्यम्’, उसका जो चिन्तन (स्मरण) करता है‒‘अनुस्मरेत्’ (८ । ९), तो जो अचिन्त्य है, उसका चिन्तन कैसे ? और जिसका चिन्तन होता है, वह अचिन्त्य कैसे ?

यद्यपि वह परमात्मा चिन्तनका विषय नहीं है, तथापि उस परमात्माका अभाव नहीं है । वह परमात्मा भावरूपसे सब जगह परिपूर्ण है । अतः ‘वह परमात्मतत्त्व अचिन्त्य है’‒ऐसी दृढ़ धारणा ही उस परमात्माका चिन्तन है । तात्पर्य है कि यद्यपि वह परमात्मा चिन्तनका विषय नहीं है, तथापि चिन्तन करनेवाला उस तत्त्वको लक्ष्य बना सकता है ।

(१५) यह सब संसार मेरेमें अव्यक्तरूपसे व्याप्‍त है और सम्पूर्ण प्राणी मेरेमें स्थित हैं; परन्तु मैं उनमें स्थित नहीं हूँ और वे प्राणी भी मेरेमें स्थित नहीं हैं, (९ । ४‒५)‒यह कैसे ?

जहाँ प्राणियोंकी स्वतन्त्र सत्ता मानकर चलते हैं, वहाँ तो सब प्राणियोंमें भगवान्‌ हैं और सब प्राणी भगवान्‌में हैं । परन्तु जहाँ प्राणियोंकी, संसारकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं मानी जाती, वहाँ प्राणियोमें भगवान्‌ नहीं हैं और भगवान्‌में प्राणी नहीं हैं, प्रत्युत सब कुछ भगवान्‌ ही हैं ।

(१६) मैं अव्यक्तरूपसे सब जगह व्याप्‍त हूँ (९ । ४); भक्त भक्तिपूर्वक पत्र, पुष्प, फल आदि जो कुछ भी देता है, उसको मैं खा लेता हूँ (९ । २६); तो जो अव्यक्त है, उसका खाना-पीना कैसे ? और जो खाता-पीता है, वह अव्यक्त कैसे ?

‘पृथ्वीस्थूलरूपको व्यक्त और गन्धरूपसे अव्यक्त है । जलनदी, ओले, बर्फ आदिके रूपसे व्यक्त और परमाणुरूपसे (आकाशमें रहते हुए) अव्यक्त है । तेज’ सूर्य, चन्द्रमा और अग्‍निरूपसे व्यक्त तथा दियासलाई, काष्ठ आदिमें अव्यक्त है । इस प्रकार जब पृथ्वी, जल, तेज आदि भौतिक पदार्थ भी व्यक्त और अव्यक्तदोनों होते हैं, तो फिर भगवान्‌ व्यक्त और अव्यक्त‒दोनों होते हों, इसमें आश्‍चर्य ही क्या है ? तात्पर्य है कि भगवान्‌ अव्यक्तरूपसे व्यापक भी हैं और भक्तोंके भावोंके अनुसार व्यक्त भी है; क्योंकि भगवान्‌का यह नियम है‒ये यथा मां प्रपद्यन्तेः तांस्तथैव भजाम्यहम्’ (४ । ११) ।

(१७) भगवान्‌ सम्पूर्ण जगत्‌में व्याप्‍त हैं (९ । ४); भगवान्‌ सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें अच्छी तरहसे स्थित हैं (१५ । १५) तो जो सर्वव्यापक है, वह एक देश हृदयमें अच्छी तरहसे स्थित कैसे ?

भगवान्‌ तो सब जगह व्यापक, सबमें ओतप्रोत हैं ही, पर सब जगह, सब चीजोंमें भगवान्‌का अनुभव करनेके लिये हृदयके समान इतनी स्वच्छता नहीं है । हृदय स्वच्छ होनेपर हृदयमें भगवान्‌का अनुभव होता है और हृदयमें अनुभव होनेपर भगवान्‌ सब जगह हैं’‒इसका अनुभव हो जाता है । तात्पर्य है कि जैसे तारमें सब जगह विद्युत् होनेपर भी लट्‍‌‍टू (बल्ब)-के बिना प्रकाश नहीं होता, ऐसे ही भगवान्‌के सब जगह व्यापक होनेपर भी हृदयके बिना उनका अनुभव नहीं होता । इसी आशयसे ‘मैं सबके हृदयमें अच्छी तरहसे स्थित हूँ’ यह कहा गया है ।

(१८) सत् और असत् भी मैं ही हूँ (९ । १९), उस परमात्माको न सत् कहा जा सकता है और न असत् ही कहा जा सकता है ( १३ । १२)‒यह कैसे ?

भगवान्‌ जहाँ कार्य-कारणरूपसे अपनी विभूतियोंका वर्णन करते हैं, वहाँ कहते हैं कि सत्‌ और असत् जो कुछ भी है, वह सब मैं ही हूँ, मेरे सिवाय कुछ भी नहीं है । परन्तु जहाँ ज्ञेय-तत्त्वका वर्णन करते हैं वहाँ कहते हैं कि उस तत्त्वको न सत् कहा जा सकता है और न असत् ही कहा जा सकता है; क्योंकि उस तत्त्वका किसी शब्दके द्वारा वर्णन नहीं हो सकता । तात्पर्य यह है कि सगुणकी दृष्टिसे सब कुछ भगवान्‌ ही हैं; निर्गुणकी दृष्टिसे वे न सत् कहे जा सकते हैं और न असत् ही; और भक्तिकी दृष्टिसे सत् और असत् भी वे ही हैं तथा सत्-असत्‌से परे भी वे ही हैं‒सदसत्तत्परं यत्’ (११ । ३७) ।