।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
 मार्गशीर्ष शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.-२०७९, सोमवार

गीतामें आये परस्पर-विरोधी

पदोंका तात्पर्य



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(१९) मेरे भक्तका विनाश (पतन) नहीं होता (९ । ३१), तू मेरा भक्त है (४ । ३); और यदि तू मेरी बात नहीं सुनेगा तो तेरा विनाश (पतन) हो जायगा (१८ । ५८)‒यह कैसे ?

यद्यपि भक्त भगवान्‌की बात न सुने, उनकी आज्ञाके विरुद्ध चले‒ऐसा सम्भव नहीं हैं, तथापि अगर वह भगवान्‌की बात नहीं सुनेगा तो वह भगवान्‌का भक्त नहीं रहेगा अर्थात् भक्तपनसे छूट जायगा । फिर उसके पतनको रोकनेवाला कौन है ? तात्पर्य है कि जबतक वह भगवान्‌का भक्त है, तबतक उसका पतन हो तो नहीं सकता; परन्तु जब वह भक्तपनको छोड़ देता है, अभक्त हो जाता है, तब उसका पतन हो जाता है ।

(२०) जन्म, मृत्यु, जरा और व्याधिरूप दुःखको बार-बार देखना चाहिये (१३ । ८); कर्तव्य-कर्ममें दुःख देखनेवाले तथा शरीरके भयसे कर्म छोड़नेवाले राजस मनुष्यको त्यागका फल नहीं मिलता (१८ । ८)‒यह कैसे ?

यहाँ विषय दो हैं । भोगोंमें जन्म, मृत्यु, जरा और व्याधिरूप दुःखको देखना वैराग्यमें हेतु है अर्थात् अभी भोग भोगेंगे तो उसके परिणाममें बार-बार जन्मना-मरना पड़ेगा, शरीरमें रोग होंगे, वर्तमानमें भय और चिन्ता होगी, परलोकमें दुर्दशा होगी‒इस प्रकार भोगोंमें दुःखको देखनेसे भोगोंसे वैराग्य हो जायगा । अतः भोगोंमें दुःख-दृष्टि जरूर करनी चाहिये । परन्तु कर्तव्य-कर्ममें दुःख देखना पतनमें हेतु है; अतः कर्तव्य-कर्ममें दुःख-दृष्टि कभी करनी ही नहीं चाहिये, प्रत्युत कर्तव्य-कर्मको उत्साहपूर्वक तत्परतासे करना चाहिये । तात्पर्य है कि भोगोंमें राग नहीं होना चाहिये और कर्तव्य-कर्मका त्याग नहीं करना चाहिये ।

(२१) परमात्मा ज्ञेय’ अर्थात् जाननेयोग्य है (१३ । १२); परमात्मा अविज्ञेय’ अर्थात् जाननेका विषय नहीं है (१३ । १५)‒यह कैसे ?

जानना दो तरहका होता है‒करण-निरपेक्ष और करण-सापेक्ष । जो इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि करणोंके द्वारा नहीं जाना जा सकता, वह करण-निरपेक्ष होता है और जो करणोंके द्वारा जाना जा सकता है, वह करण-सापेक्ष होता है । परमात्मतत्त्वका ज्ञान करण-निरपेक्ष होता है अर्थात् वह स्वयंके द्वारा ही जाना जाता है, इसलिये वह ज्ञेय’ है और वह करणोंके द्वारा जाननेमें नहीं आता, इसलिये वह अविज्ञेयहै ।

(२२) वह परमात्मा सम्पूर्ण इन्द्रियों और उनके विषयोंको प्रकाशित करनेवाला है तथा वह सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे रहित है (१३ । १४)‒यह कैसे ?

जैसे एक-एक इन्द्रियसे एक-एक विषयका ज्ञान होता है, पर मनको पाँचों इन्द्रियोंका, उनके विषयोंका और उन विषयोंमें एक-एक विषयमें क्या कमी है, क्या घटिया है, क्या बढ़िया है आदिका ज्ञान होता है अर्थात् मन पाँचों इन्द्रियोंको तथा उनके विषयोंको प्रकाशित करता है । मनको ऐसा ज्ञान होते हुए भी मनमें पाँचों इन्द्रियाँ नहीं हैं । ऐसे ही वह परमात्मा सबको, संसारमात्रको प्रकाशित करता है, पर वह इन्द्रियोंसे रहित है अर्थात् उस परमात्मामें इन्द्रियाँ नहीं है ।

(२३) वह परमात्मा आसक्तिरहित है और वह सबका भरण-पोषण करनेवाला है (१३ । १४)‒यह कैसे ?

जैसे माता-पिता अपनी संतानका पालन-पोषण करते हैं, उसकी रक्षा करते हैं, पर करते हैं आसक्तिपूर्वक ही । ऐसे ही परमात्मा सबका भरण-पोषण करता है, उनकी रक्षा करता है, पर करता है आसक्तिरहित होकर ही । तात्पर्य है कि उस परमात्माकी किसीमें भी आसक्ति नहीं है, सबसे निर्लिप्‍तता है ।