।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
     पौष कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०७९, शनिवार

गीतामें आये समान चरणोंका तात्पर्य



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(११) श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्’ (३ । ३५; १८ । ४७)‒अर्जुन युद्ध करनेकी अपेक्षा भिक्षा माँगने (परधर्म)-को श्रेष्ठ समझते थे; अतः पहली बार इन पदोंसे भगवान्‌ने अर्जुनको परधर्मसे हटकर युद्ध करना श्रेष्ठ बताया (३ । ३५) और दूसरी बार इन पदोंसे अपने धर्ममें कमी होनेपर भी अपने धर्मका अनुष्ठान करना श्रेष्ठ बताया (१८ । ४७) । इस प्रकार पहली बार आये पदोंसे परधर्ममें गुणोंकी अधिकता होनेसे परधर्ममें रुचि बतायी गयी है और दूसरी बार आये पदोंसे अपने धर्ममें गुणोंकी कमी होनेसे अपने धर्ममें अरुचि बतायी गयी है । तात्पर्य है कि न तो अपने कर्तव्य-कर्मको निकृष्ट समझकर उससे अरुचि होनी चाहिये और न दूसरोंके कर्तव्य-कर्मको श्रेष्ठ समझकर उसपर दृष्टि जानी चाहिये, प्रत्युत प्राप्‍त परिस्थितिके अनुसार अपने कर्तव्य-कर्मका उत्साह और तत्परतापूर्वक पालन करना चाहिये ।

(१२) ‘यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्’ (४ । १६; ९ । १)‒चौथे अध्यायके सोलहवें श्‍लोकमें इन पदोंके द्वारा कर्मयोगके विषयमें कहा है कि कर्मके तत्त्वको जाननेसे तू अशुभ संसारसे मुक्‍त हो जायगा; और नवें अध्यायके पहले श्‍लोकमें इन पदोंके द्वारा भक्तियोगके विषयमें कहा है कि भगवान्‌ सब जगह हैं, भगवान्‌से ही संसार उत्पन्‍न हुआ है, उन्हींमें रहता है और उन्हींमें लीन होता है तथा सब कुछ भगवान्‌ ही बने हैं, भगवान्‌के सिवाय दूसरा कुछ है ही नहीं‒इस विज्ञानसहित ज्ञानको जानने अर्थात् अनुभव करनेसे तू अशुभ संसारसे मुक्‍त हो जायगा । तात्पर्य है कि चौथे अध्यायके सोलहवें श्‍लोकमें निष्कामताकी मुख्यता है और नवें अध्यायके पहले श्‍लोकमें सब जगह भगवान्‌को देखनेकी मुख्यता है । कर्मके तत्त्वको जानकर निष्कामभावपूर्वक कर्म करनेसे जड़ता मिट जाती है और चिन्मयता आ जाती है । (४ । १६) तथा चिन्मय भगवान्‌को जाननेसे चिन्मयता आ जाती है, और जड़ता मिट जाती है ।

(१३) ‘(कर्म) कुर्वन्‍नाप्‍नोति किल्बिषम्’ (४ । २१; १८ । ४७)‒केवल शरीर-निर्वाहकी दृष्टिसे कर्म करते हुए भी पाप नहीं लगता (४ । २१) और अपने कर्तव्य (स्वधर्म)-का पालन करते हुए भी पाप नहीं लगता (१८ । ४७) । तात्पर्य है कि साधकमें जो कुछ विलक्षणता आती है, वह एक निश्‍चयात्मिका बुद्धि होनेसे ही आती है । निश्‍चयात्मिका बुद्धिके होनेमें भोग और संग्रहकी आसक्ति ही बाधक है । इसलिये भगवान्‌ने चौथे अध्यायके इक्‍कीसवें श्‍लोकमें शरीर-निर्वाह अर्थात् भोगोंमें भोगबुद्धि न करनेमें सावधान किया है । संग्रहके लोभमें मनुष्य कर्तव्य-अकर्तव्यका ख्याल नहीं रखता; अतः अठारहवें अध्यायके सैंतालीसवें श्‍लोकमें अकर्तव्यका त्याग करके कर्तव्य-कर्म करनेमें सावधान किया है ।

(१४) (कर्माणि) निबध्‍नन्ति धनंजय’ (४ । ४१; ९ । ९)‒चौथे अध्यायके इकतालीसवें श्‍लोकमें ये पद कर्मयोगीके लिये आये हैं । तात्पर्य है कि कर्म करते हुए भी कर्मयोगीका कर्मोंके साथ और कर्मफलोंके साथ किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं रहता; अतः उसे कर्म नहीं बाँधते । नवें अध्यायके नवें श्‍लोकमें ये पद भगवान्‌के लिये आये हैं । तात्पर्य है कि भगवान्‌ सृष्टिकी रचना करते हैं, पर उन कर्मोंसे वे बँधते नहीं; क्योंकि भगवान्‌में कर्तृत्वाभिमान और फलासक्ति होती ही नहीं (४ । १३-१४) ।

(१५) ‘यः पश्यति स पश्यति’ (५ । ५; १३ । २७)‒पहली बार ये पद साधनके विषयमें आये हैं और दूसरी बार ये पद साध्य (परमात्मा)-के विषयमें आये हैं । सांख्ययोग और कर्मयोग‒ये दोनों ही साधन परमात्माकी प्राप्‍ति करानेवाले हैं, इनमें कोई छोटा-बड़ा नहीं, दोनों समान हैं‒इस प्रकार जो देखता है, वही ठीक देखता है (५ । ५) । जो परमात्माको सब जगह समानरूपसे व्यापक देखता है, वही वास्तवमें सही देखता है (१३ । २७) । तात्पर्य है कि साधनोंमें तो भिन्‍नताकी मान्यता नहीं होनी चाहिये और साध्य (परमात्मा)-को सब जगह परिपूर्ण मानना चाहिये । साधन और साध्यको छोटा-बड़ा नहीं मानना चाहिये अर्थात् साधनमें भी छोटे-बड़ेका भाव न हो और साध्यमें भी छोटे-बड़ेका भाव न हो । दोनोंको पूर्ण मानना चाहिये ।