।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
     पौष कृष्ण तृतीया, वि.सं.-२०७९, रविवार

गीतामें आये समान चरणोंका तात्पर्य



Listen



(१६) सर्वभूतहिते रताः’ (५ । २५ १२ । ४)‒ये पद दोनों ही बार सांख्ययोगमें आये हैं; परन्तु पाँचवें अध्यायके पचीसवें श्‍लोकमें इन पदोंसे निर्वाण ब्रह्म अर्थात् निर्गुण-निराकारकी प्राप्‍ति बतायी गयी है और बारहवें अध्यायके चौथे श्‍लोकमें इन पदोंसे माम्’ अर्थात् सगुण-साकारकी प्राप्‍ति बतायी गयी है । तात्पर्य है कि सांख्ययोगी निर्गुणकी प्राप्‍ति चाहे या सगुणकी प्राप्‍ति चाहे, पर उसके लिये सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें रत होना आवश्यक है । कारण कि जड़ पदार्थोंका त्याग करनेमें दूसरोंके हितकी भावना बड़ी सहायक होती है । सांख्ययोगी (ज्ञानमार्गी) प्रायः संसारसे उपराम रहता है, इसलिये उसकी जल्दी सिद्धि नहीं होती; परन्तु प्राणिमात्रके हितमें रति होनेसे जल्दी सिद्धि हो जाती है ।

(१७) युञ्जन्नेवं सदाऽऽत्मानं योगी’ (६ । १५, २८)‒ये पद छठे अध्यायके पंद्रहवें श्‍लोकमें तो सगुण-साकारके ध्यानके विषयमें और अट्ठाईसवें श्‍लोकमें निर्गुण-निराकारके ध्यानके विषयमें आये हैं । पंद्रहवें श्‍लोकमें तो निर्वाणपरमा शान्तिकी प्राप्‍ति बतायी है और अट्ठाईसवें श्‍लोकमें अत्यन्त सुखकी प्राप्‍ति बतायी है । तात्पर्य है कि ध्यान चाहे सगुणका करें, चाहे निर्गुणका करें, दोनोंसे एक ही तत्त्वकी प्राप्‍ति होगी ।

(१८) शीतोष्णसुखदुःखेषु’ (६ । ७; १२ । १८)‒यह पद छठे अध्यायके सातवें श्‍लोकमें सिद्ध कर्मयोगीके लक्षणोंमें और बारहवें अध्यायके अठारहवें श्‍लोकमें सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंमें आया है । तात्पर्य है कि शीत-उष्ण (अनुकूलता-प्रतिकूलता) और सुख-दुःखमें कर्मयोगी भी प्रशान्त (निर्विकार) रहता है और भक्तियोगी भी सम (निर्विकार) रहता है ।

(१९) तथा मानापमानयोः’ (६ । ७; १२ । १८)‒ये पद छठे अध्यायके सातवें श्‍लोकमें सिद्ध कर्मयोगीके लक्षणोंमें और बारहवें अध्यायके अठारहवें श्‍लोकमें सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंमें आये हैं । इन दोनों सिद्धोंके लिये तो मान-अपमानमें सम रहना स्वाभाविक होता है, पर साधकको इनमें विशेष सावधान रहना चाहिये ।[*] तात्पर्य है कि सांसारिक आसक्ति तो पतन करनेवाली है ही पर मान-अपमान अच्छे-अच्छे साधकोंको भी विचलित कर देते हैं । अतः साधकोंको मान-अपमानके विषयमें विशेष सावधान रहना चाहिये कि वे शरीर आदिके साथ अपना सम्बन्ध न जोड़ें; क्योंकि शरीर आदिके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे ही मान-अपमानका असर पड़ता है ।

(२०) समलोष्टाश्मकाञ्चनः’ (६ । ८; १४ । २४)‒यह पद छठे अध्यायके आठवें श्‍लोकमें सिद्ध कर्मयोगीके लिये आया है और चौदहवें अध्यायके चौबीसवें श्‍लोकमें सिद्ध सांख्ययोगीके लिये आया है । तात्पर्य है कि कर्मयोगी और सांख्ययोगी‒दोनोंको एक ही स्थितिकी प्राप्‍ति होती है (५ । ५) ।

(२१) सर्वथा वर्तमानोऽपि’ (६ । ३१; १३ । २३)‒ये पद छठे अध्यायके इकतीसवें श्‍लोकमें भक्तियोगीके लिये और तेरहवें अध्यायके तेईसवें श्‍लोकमें सांख्ययोगीके लिये आये हैं । भगवान्‌के साथ सम्बन्ध (अपनापन) हो जानेसे भक्त सदा ही भगवान्‌के साथ रहता है (६ । ३१) । प्रकृति और पुरुषके अलगावका ठीक-ठीक अनुभव हो जानेसे सांख्ययोगीका फिर जन्म नहीं होता (१३ । २३) । तात्पर्य है कि चाहे भगवान्‌के साथ सम्बन्ध जोड़ लो, चाहे प्रकृतिके साथ सम्बन्ध तोड़ लो, दोनोंका परिणाम एक ही होगा ।



[*] सिद्ध ज्ञानयोगीके लिये भी ‘मानापमानयोस्तुल्यः’ (१४ । २५) पद आया है अर्थात् वह भी मान और अपमानमें स्वाभाविक सम रहता है ।