Listen (२२) ‘ततो
याति परां गतिम्’ (६ । ४५; १३ । २८; १६ । २२)‒जो साधनमें लग गया है, अपने मुख्य ध्येयमें लग गया है, उसकी परमगतिमें कभी संदेह नहीं करना चाहिये
। किसी कारणसे उसका दूसरा जन्म भी हो जाय तो भी उसकी परमगति होगी ही (६ । ४५) । जो
विनाशी देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटना आदिमें समरूपसे रहनेवाले एक परमात्माको
ही देखता है, वह परमगतिको प्राप्त होता
है (१३ । २८) । काम,
क्रोध और लोभ‒इन तीनोंमें
पतन करनेवाला काम (कामना) ही है; क्योंकि कामनासे ही क्रोध और लोभ पैदा होते हैं । इस कामनासे
छूटा हुआ व्यक्ति परमगतिको प्राप्त हो जाता है (१६ । २२) । इस प्रकार भगवान्ने कामनाका
त्याग करना और सब जगह परमात्माको देखना‒ये दो साधन बताये तथा साधनमें लगनेवालेकी परमगति
होनेकी बात बतायी । (२३) ‘(अस्मि)
तेजस्तेजस्विनामहम्’ (७ । १०; १० । ३६)‒इन पदोंसे सातवें अध्यायके दसवें
श्लोकमें कारणरूपसे तेजका वर्णन हुआ है, जो कि भगवान्से उत्पन्न हुआ है; और दसवें
अध्यायके छत्तीसवें श्लोकमें कार्यरूपसे तेजका वर्णन हुआ है, जो कि संसारमें देखनेमें आता है । तात्पर्य
है कि मूल (भगवान्)-की तरफ दृष्टि करनेके लिये कारणरूपसे तेजका वर्णन
किया गया है और संसारमें जो तेज (प्रभाव) दीखता है, उसमें भगवद्बुद्धि करनेके लिये कार्यरूपसे
(विभूतिके रूपमें) तेजका वर्णन किया गया है । (२४) ‘परं
भावमजानन्तो मम’ (७ । २४; ९ । ११)‒सातवें अध्यायके चौबीसवें श्लोकमें कहा
कि जो कामनापूर्तिके लिये देवताओंकी उपासना करते हैं और भगवान्के परम अविनाशी भावको
न जानते हुए भगवान्को साधारण मनुष्य मानते हैं, वे बुद्धिहीन हैं । नवें अध्यायके ग्यारहवें
श्लोकमें कहा कि आसुरी,
राक्षसी और मोहिनी प्रकृतिवाले
मनुष्य भगवान्के अज,
अविनाशी और सम्पूर्ण प्राणियोंके
महान् ईश्वरभावको न जानते हुए उनको साधारण मनुष्य मानकर उनकी अवहेलना करते हैं । तात्पर्य
है कि सातवें अध्यायके चौबीसवें श्लोकमें वर्णित लोग तो भगवान्को साधारण मनुष्य मानकर
उनकी उपेक्षा करते हैं और नवें अध्यायके ग्यारहवें श्लोकमें वर्णित लोग भगवान्को
साधारण मनुष्य मानकर उनका तिरस्कार करते हैं । वहाँ उपेक्षा मुख्य है और यहाँ तिरस्कार
मुख्य है । परम भाव दो तरहका होता है‒पहला, वह अविनाशी है, उत्तम है और दूसरा, वह सबका ईश्वर (स्वामी)
है, शासक है । यह बतानेके लिये ही भगवान्ने
दोनों जगह (७ । २४ और ९ । ११में) ‘परं भाव’ पदका प्रयोग किया अर्थात् इस पदसे पहली
बार अपनेको अविनाशी (जन्म-मरणसे रहित) बताया (७ । २४) और दूसरी बार अपनेकी सबका स्वामी, शासक
बताया (९ । ११) । इन दोनों भावोंके मिलनेसे ही परम भाव पूर्ण होता है । ऐसे परम भावको
न जाननेवाले लोग बुद्धिहीन हैं, मूढ़ है ।
(२५) ‘तस्मात्सर्वेषु
कालेषु’ (८ ।
७, २७)‒आठवें अध्यायके सातवें श्लोकमें सब समय भगवान्को याद रखनेकी बात है; क्योंकि युद्ध अर्थात् कर्त्तव्य-कर्म
तो सब समय नहीं हो सकता, पर भगवान्का स्मरण सब समय हो सकता है । सत्ताईसवें श्लोकमें
अनुकूल-प्रतिकूल देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदिमें सम रहनेकी बात
है अर्थात् अनुकूलता-प्रतिकूलतामें राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि नहीं होने चाहिये; किंतु सम रहना चाहिये । समता परमात्माका
स्वरूप है; अतः समरूप परमात्माकी आराधना
भी समता ही है–‘समत्वमाराधनमच्युतस्य’ (विष्णुपुराण १ । १७ ।
९०) । तात्पर्य है कि चाहे सब समयमें भगवान्का स्मरण करें, चाहे योग अर्थात् समतासे समरूप परमात्माकी
आराधना करें, एक ही बात है । |