Listen (२६) ‘मय्यर्पितमनोबुद्धिः’ (८ ।
७; १२ ।
१४)‒यह पद आठवें अध्यायके सातवें श्लोकमें साधक भक्तके लिये और बारहवें अध्यायके
चौदहवें श्लोकमें सिद्ध भक्तके लिये आया है । साधक भक्त तो अपने मन और बुद्धिको भगवान्के अर्पित करता है, पर सिद्ध भक्तके मन और बुद्धि स्वतः-स्वाभाविक
भगवान्के अर्पित होते हैं‒यह अन्तर बतानेके लिये यह चरण दो बार आया है । तात्पर्य
है कि मनुष्यके पास बड़े-से-बड़े दो ही औजार हैं‒मन और बुद्धि । ये दोनों औजार जबतक जड़ता
(संसार)-में लगे रहते
हैं, तबतक यह स्वयं इन मन-बुद्धिके
साथ जड़तामें आबद्ध रहता है । परन्तु जब इनका मुख भगवान्की तरफ हो जाता है अर्थात्
इनमेंसे ममता छूट जाती है, तब स्वयं भगवान्के साथ अभिन्न हो जाता है । (२७) ‘न निवर्तन्ते
तद्धाम परमं मम’ (८ । २१; १५ । ६)–आठवें अध्यायके इक्कीसवें श्लोकमें परमात्मविषयक
वर्णनकी एकता करते हुए कहते हैं कि जिसको प्राप्त होनेपर जीव फिर लौटकर नहीं आते,
उसीको परमधाम कहते हैं; और पंद्रहवें अध्यायके छठे श्लोकमें अपनी महिमाका वर्णन करते
हुए कहते हैं कि जो संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करके परमात्माकी शरण हो जाता है, उसको
परमधामकी प्राप्ति हो जाती है, जहाँसे फिर लौटकर नहीं आना पड़ता । तात्पर्य है कि चाहे उस परमात्मतत्त्वको
प्राप्त हो जाय, चाहे उस परमात्माके परमधाममें चला जाय अर्थात् चाहे यहाँ जीते-जी
परमात्माको प्राप्त हो जाय, चाहे शरीर छोड़नेके बाद परमात्माके परमधाममें पहुँच जाय‒दोनों
बातें एक ही हैं, दोनोंमें कोई फर्क नहीं है; क्योंकि दोनोंमें प्रकृति और उसके कार्यसे
सम्बन्ध छूट जाता है । (२८) ‘पश्य
मे योगमैश्वरम्’ (९ । ५; ११ । ८)‒‘पश्य’ क्रियाके दो अर्थ होते हैं‒जानना और देखना । नवें अध्यायके
पाँचवें श्लोकमें बुद्धिसे जाननेकी बात आयी है कि सब कुछ भगवत्स्वरूप है; और ग्यारहवें अध्यायके आठवें श्लोकमें
विराट्रूपको देखनेकी बात आयी है । गुरु, संत, भगवान् जना दें तो मनुष्य बुद्धिसे जान
सकता है, पर भगवान्का दिव्य विराट्रूप तभी देखा जा सकता है, जब भगवान् कृपा करके
नेत्रोंमें दिव्यता देते हैं । तात्पर्य है कि नवें अध्यायके पाँचवें श्लोकमें ‘ज्ञानचक्षु’ का वर्णन है और ग्यारहवें
अध्यायके आठवें श्लोकमें ‘दिव्यचक्षु’ का वर्णन है ।
(२९) ‘नित्ययुक्ता
उपासते’ (९ ।
१४; १२ ।
२)‒नवें अध्यायके चौदहवें श्लोकमें तो दैवी सम्पत्तिका आश्रय लेनेवालोंके नित्य-निरन्तर
भगवान्में लगे रहनेकी बात कही है और बारहवें अध्यायके दूसरे श्लोकमें भगवान्के लिये
कर्म करनेवाले तथा उन्हींके परायण रहनेवालोंके नित्य-निरन्तर भगवान्में लगे रहनेकी
बात कही है । तात्पर्य है कि भगवान्की उपासना दो तरहसे होती है‒एकमें सभी कर्म भगवत्सम्बन्धी
ही होते हैं और दूसरीमें कर्म संसार-सम्बन्धी भी होते हैं और भगवत्सम्बन्धी भी होते
हैं । दोनों तरहकी उपासनामें क्रियाओंका भेद तो है, पर भावोंका भेद नहीं है अर्थात्
भक्तिके साधनमें क्रियाभेद तो हो सकता है, पर भावभेद नहीं होता । भगवान्का ही भाव
होनेके कारण दोनों ही साधक नित्य-निरन्तर भगवान्में ही लगे रहते हैं । दूसरा भाव यह
है कि भगवान्के साथ अपने वास्तविक सम्बन्धको चाहे दैवी सम्पत्तिका आश्रय लेकर पहचान
ले, चाहे साधनपंचक (११ । ५५)-से पहचान ले, फिर साधक नित्य-निरन्तर भगवान्में ही लगा
रहता है । |