।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
         पौष कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०७९, बुधवार

गीतामें आये समान चरणोंका तात्पर्य



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(३०) यजन्ते श्रद्धयान्विताः’ (९ । २३; १७ । १)‒नवें अध्यायके तेईसवें श्‍लोकमें सकाम मनुष्योंके द्वारा सत्-असत्‌रूप भगवान्‌का अविधिपूर्वक पूजन करनेकी बात आयी है । सकाम मनुष्य अपने इष्टको भगवान्‌से अलग मानते हैं, उसको भगवद्रूप नहीं मानते, इसलिये उनके द्वारा किया गया पूजन अविधिपूर्वक होता है । सत्रहवें अध्यायके पहले श्‍लोकमें शास्‍त्रविधिका त्याग करके श्रद्धासे पूजन करनेवालोंकी निष्ठाके विषयमें अर्जुनका प्रश्‍न है कि वे कौन-सी निष्ठा (श्रद्धा)-वाले हैं । उसके उत्तरमें भगवान्‌ने सम्पूर्ण प्राणियोंकी स्वभावसे उत्पन्‍न तीन प्रकारकी श्रद्धा बतायी । तात्पर्य है कि नवें अध्यायके तेईसवें श्‍लोकमें देवताओंमें भगवद्‌बुद्धि न होनेसे उनका पूजन श्रद्धापूर्वक किये जानेपर भी उसको अविधिपूर्वक कहा गया है, जिससे वे जन्म-मरणको प्राप्‍त होते हैं; और सत्रहवें अध्यायके पहले श्‍लोकमें शास्‍त्रविधिका अज्ञतापूर्वक त्याग होनेपर भी तीन प्रकारकी श्रद्धाकी बात कही गयी है, जिसमें सात्त्विकी श्रद्धा होनेसे वे दैवी-सम्पत्तिको प्राप्‍त हो जाते हैं, जो मोक्षके लिये होती है ।

(३१) ‘मन्मना भव मद्धक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु’ (९ । ३४; १८ । ६५)‒नवें अध्यायके चौंतीसवें श्‍लोकमें तो पहले राजविद्या, राज्यगुह्य और भक्तिके अधिकारियोंका वर्णन करके फिर ‘मन्मना भव....’ आदिकी आज्ञा दी; और अठारहवें अध्यायके पैंसठवें श्‍लोकमें पहले गुह्य, गुह्यतर और सर्वगुह्यतम बात बताकर फिर मन्मना भव....’ आदिकी आज्ञा दी । तात्पर्य है कि नवें अध्यायमें भगवान्‌ अपनी तरफसे ही नवें अध्यायका विषय शुरू करते हैं, भगवान्‌की तरफसे कृपाका स्रोत बहता है; परन्तु अर्जुनके मनमें अपने साधनका, पुरुषार्थका कुछ अभिमान है, अतः भगवान्‌ने कहा‒मन्मना भव मद्भक्तः.....मत्परायणः’ (९ । ३४) ‘तू मेरा भक्त हो जा, मेरेमें मनवाला हो जा, मेरा पूजन करनेवाला हो जा और मेरेको नमस्कार कर । इस प्रकार मेरे साथ अपने-आपको लगाकर, मेरे परायण हुआ तू मेरेको ही प्राप्‍त होगा ।’ अतः यहाँ भगवत्प्राप्‍तिमें भगवत्परायणता हेतु है; और वहाँ (१८ । ६५में) भगवत्प्राप्‍तिमें केवल भगवत्कृपा ही हेतु है । कारण कि भगवान्‌ने पहले (१८ । ५७में) मच्‍चित्तः सततं भव’ कह दिया, पर उस बातको अर्जुनने स्वीकार नहीं किया तो भगवान्‌ने अथ चेत्त्वमहंकारान्‍न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि’ (१८ । ५८) कहकर अर्जुनको धमकाया कि यह तेरा अहंकारका आश्रय है, जिससे तू मेरी बात नहीं सुन रहा है । जब भगवान्‌ने साफ कह दिया कि तू जैसी मरजी आये, वैसा कर’ (१८ । ६३), तब अर्जुनके मनमें धक्‍का लगा । अतः अर्जुनके भीतर कुछ पुरुषार्थका अभिमान था, जो भगवत्कृपासे नष्ट हुआ । इसलिये भगवान्‌ने कहा‒मन्मना भव मद्भक्तः....प्रियोऽसि मे’ (१८ । ६५) तू मेरा भक्त हो जा, मेरेमें मनवाला हो जा, मेरा पूजन करनेवाला हो जा और मेरेको नमस्कार कर । ऐसा करनेसे तू मेरेको ही प्राप्‍त हो जायगा‒यह मैं सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ; क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है तात्पर्य है कि वहाँ (९ । ३४में) अर्जुनके भीतर कुछ पुरुषार्थका अभिमान था, जो यहाँ (१८ । ६में) नष्ट हो गया ।

(३२) शृणु मे परमं वचः’ (१० । १; १८ । ६४)‒ये पद दोनों ही बार भक्तिके विषयमें आये हैं । दसवें अध्यायके पहले श्‍लोकमें भगवान्‌ने परम वचन कहकर अपना महत्त्व, प्रभाव, सामर्थ्य, ऐश्‍वर्य सुननेके लिये आज्ञा दी है और अठारहवें अध्यायके चौसठ श्‍लोकमें परम वचन कहकर अपने शरण होनेके लिये आज्ञा दी है । तात्पर्य है कि भगवान्‌ने यहाँ (१० । १में) अपनी तरफसे ही बात कही, पर वह अर्जुनको जँची नहीं; और वहाँ (१८ । ६४में) अर्जुन विशेषतासे भगवान्‌के सम्मुख हो गये अर्थात् बात अर्जुनको जँच गयी ।