Listen (४३) ‘अनुद्वेगकरम्’ और ‘प्रियम्’ (१७ । १५)‒जो वचन वर्तमान और भविष्यमें कभी किसीमें उद्वेग,
विक्षेप और हलचल पैदा करनेवाला न हो वह ‘अनुद्वेगकर’
कहलाता है । जो वचन क्रूरता, रूखेपन, तीखेपन, ताने, निन्दा-चुगली
और अपमानकारक शब्दोंसे रहित हो तथा जो प्रेमयुक्त, मीठा और सरल हो, वह
‘प्रिय’
कहलाता है । तात्पर्य है कि मनुष्यको ऐसे वचन बोलने चाहिये जो
वर्तमानमें भी प्रिय लगें और परिणाममें भी हितकारक हों । (४४) ‘सत्कारमानपूजार्थम्’ अर्थात् ‘सत्कार’, ‘मान’ और ‘पूजा’ (१७ । १८)‒बाहरकी क्रियाओंसे आदर करनेका नाम ‘सत्कार’ है; भीतरके भावोंसे आदर करनेका नाम
‘मान’ है; और माला पहनाने, पुष्प चढ़ाने, आरती उतारने आदिका नाम
‘पूजा’
है । तात्पर्य है कि जब मनमें राग,
आसक्ति, कामना होती है, तभी सत्कार, मान और पूजा पानेकी इच्छा होती है । अतः साधकको सावधान रहना
चाहिये कि उसके चित्तपर संसारका रंग चढ़ने ही न पाये । (४५) ‘चलम्’ और ‘अध्रुवम्’ (१७ । १८)‒जो तप सत्कार, मान और पूजाके लिये किया जाता है,
उसका फल ‘चल’ अर्थात् नाशवान् होता है; और जो तप केवल दिखावटीपनके लिये किया जाता है,
उसका फल ‘अध्रुव’ अर्थात् अनिश्चित (फल मिले या न मिले, दम्भ सिद्ध हो या न
हो) होता है । तात्पर्य है कि कामना रखनेसे ही कर्मोंका फल चल और अध्रुव होता है ।
अतः साधकको फलकी कामनाका त्याग कर देना चाहिये । (४६) ‘अकृतबुद्धित्वात्’ और ‘दुर्मतिः’
(१८ । १६)‒यहाँ
‘अकृतबुद्धित्वात्’ पद हेतुके रूपमें आया है और
‘दुर्मतिः’
पद कर्ताके विशेषणके रूपमें आया है अर्थात् कर्ताके दुर्मति
होनेमें अकृतबुद्धि ही हेतु
है । तात्पर्य है कि बुद्धिको शुद्ध न करनेसे अर्थात् उसमें विवेक जाग्रत् न करनेसे
ही वह दुर्मति है । अगर वह विवेकको जाग्रत् करता, उसको महत्त्व देता तो वह दुर्मति नहीं रहता । (४७) ‘धर्मम्,
अधर्मम्’ और ‘कार्यम्, अकार्यम्’ (१८ । ३१)‒शास्त्रोंने जिसकी आज्ञा
दी है और जिससे परलोकमें सद्गति होती है, वह ‘धर्म’
है और शास्त्रोंने जिसकी आज्ञा नहीं दी है और निषेध किया है
तथा जिससे परलोकमें दुर्गति होती है, वह ‘अधर्म’
है । वर्ण, आश्रम, देश, काल, लोकमर्यादा, परिस्थितिके अनुसार शास्त्रोंने जिसके लिये जिस
कर्मको करनेकी आज्ञा दी है, उसके लिये वह कर्म ‘कार्य’ (कर्तव्य) है; और परिस्थितिके अनुसार प्राप्त हुए कर्तव्यका पालन न करना तथा
न करनेलायक कामको करना ‘अकार्य’
(अकर्तव्य) है । तात्पर्य है
कि रजोगुणसे बुद्धि आवृत होनेसे धर्म-अधर्म और कार्य-अकार्यका स्पष्ट विवेक नहीं होता
। अतः साधकको चाहिये कि वह अविवेकको स्थान ही न दे । धर्म और अधर्म क्या है ? कार्य
और अकार्य क्या है ?‒इन बातोंको गहराईसे समझे । गहराईसे समझनेपर अविवेक मिट जाता
है । (४८) ‘शोकम्’ और ‘विषादम्’ (१८ । ३५)‒किसीके
मरनेकी सम्भावनाको लेकर अथवा किसीके मरनेके बाद मनमें जो चिन्ता होती है,
हलचल होती है, उसका नाम ‘शोक’
है और किसी बातको लेकर मनमें जो दुःख होता है,
उसको ‘विषाद’ कहते हैं । तात्पर्य है कि साधकको शोक और विषाद‒दोनोंको सर्वथा
छोड़ देना चाहिये । तामसी बुद्धिको छोड़ना तो सुगम है, पर तामसी धृतिको छोड़ना बड़ा कठिन है;
क्योंकि यह स्वभावमें रहती है । इसको धारण करना नहीं पड़ता,
प्रत्युत यह जन्मजात रहती है । अतः यहाँ (१८ । ३५में) ‘न विमुञ्चति’ पद दिये हैं । साधकको विशेष सावधानीसे इससे छुटकारा पाना चाहिये
। (४९) ‘परां शान्तिम्’
और ‘शाश्वतं स्थानम्’ (१८ ।
६२)‒संसारसे सर्वथा उपरतिको ‘परां
शान्तिम्’ पदोंसे और परमधामको
‘शाश्वतं स्थानम्’ पदोंसे कहा गया है । तात्पर्य है
कि परमात्माके शरण होनेपर भगवत्कृपासे संसारसे उपरति और परमात्माकी प्राप्ति हो जाती
है ।
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! |