।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
        पौष अमावस्या , वि.सं.-२०७९, शुक्रवार

गीतामें आये समानार्थक

पदोंका तात्पर्य



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(३७) समदुःखसुखः’ और ‘तुल्यप्रियाप्रियः’ (१४ । २४)‒प्रारब्धके अनुसार प्राप्‍त अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियोंमें सम रहना ‘समदुःखसुखः’ है; और क्रियमाण कर्मोंके तात्कालिक फलकी प्राप्‍ति-अप्राप्‍तिमें सम रहना ‘तुल्यप्रियाप्रियः है । तात्पर्य है कि साधकको प्रत्येक परिस्थितिमें निर्विकार रहना चाहिये, किसी भी परिस्थितिमें राग या द्वेष नहीं करना चाहिये ।

(३८) निर्मानमोहाः और अमूढाः (१५ । ५)‒मोह दो प्रकारका होता है‒१. परमात्माकी तरफ न लगकर संसारमें ही लग जाना और २. परमात्माको ठीक तरहसे न जानना । यहाँ ‘निर्मानमोहाः पदसे संसारका मोह चले जानेकी बात और ‘अमूढाः पदसे परमात्माको ठीक तरहसे जान लेनेकी बात कही गयी है । तात्पर्य है कि संसारका मोह चले जानेसे, संसारका सम्बन्ध टूट जानेसे साधकके दुःखोंका अत्यन्ताभाव हो जाता है और परमात्माका ठीक बोध होनेसे साधकको परम आनन्दकी प्राप्‍ति हो जाती है ।

(३९) अकृतात्मानः और अचेतसः (१५ । ११)‒जिन्होंने अपना अन्तःकरण शुद्ध नहीं किया है, वे ‘अकृतात्मानः है; और जिन्होंने सत्-असत्‌के ज्ञान (विवेक)-को महत्त्व नहीं दिया है, वे अचेतसः है । तात्पर्य है कि जिनमें सांसारिक आसक्ति है और जिनको परमात्मतत्त्वका बोध नहीं हुआ है, ऐसे मनुष्य यत्‍न करते हुए भी परमात्मतत्त्वको नहीं जान सकते ।

(४०) अक्रोधः और क्षमा’ (१६ । २-३)‒अक्रोध’ में अपनी तरफ दृष्टि रहती है कि हमारेमें क्रोध न हो, हलचल न हो; और ‘क्षमा’ में जिसने अपराध किया है, उसपर दृष्टि रहती है कि उसको कभी किसी प्रकारका दण्ड न मिले । तात्पर्य है कि स्वकृत क्रियाओंमें कोई गलती हो जाय तो अन्तःकरणमें हलचल, विक्षेप होता है और बिना कारण कोई हमारा अपकार करता है, झूठा लांछन लगाता है तो ‘उसको दण्ड मिले’ऐसा भाव पैदा होता है; परन्तु दैवी सम्पत्तिवाले साधकमें ये दोनों ही बातें नहीं होनी चाहिये अर्थात् स्वकृत और परकृत क्रियाओंसे अपनेमें कोई हलचल नहीं होनी चाहिये ।

(४१) दर्पः’ और अभिमानः’ (१६ । ४)‒ममताकी वस्तुओंको अर्थात् धन, पुत्र, परिवार आदि बाहरकी वस्तुओंको लेकर दर्प’ (घमण्ड) होता है; और अहंताकी वस्तुओंको अर्थात् विद्या, बुद्धि आदि भीतरकी वस्तुओंको लेकर अभिमान’ होता है । तात्पर्य है कि साधकमें ममतावाली और अहंतावाली चीजोंको लेकर घमंड और अभिमान नहीं होना चाहिये । उसको इन दोनोंसे सावधान रहना चाहिये ।

(४२) दुःखम्’ और ‘शोकः’ (१७ । ९)‒राजस मनुष्यको प्रिय लगनेवाले अत्यन्त तीखे, गरम आदि भोजनके पदार्थ खानेसे मुख, पेट आदिमें जलन होनेको यहाँ दुःख’ कहा गया है; और चित्तमें अशान्ति, चिन्ता आदि होनेको यहाँ शोक’ कहा गया है । तात्पर्य है कि राजस भोजन शारीरिक और मानसिक पीड़ाका कारण होता है; अतः यह त्याज्य है ।