Listen (३१) ‘अनन्ययोगेन’
और ‘भक्तिरव्यभिचारिणी’ (१३ । १०)‒यहाँ ज्ञानयोगका प्रकरण है; अतः ‘अनन्ययोग’ को साधनके विषयमें और ‘अव्यभिचारिणी
भक्ति’ को साध्यके विषयमें लेना चाहिये । तात्पर्य है कि साधनमें परमात्माके
सिवाय किसी दूसरेकी सहायताकी किंचिन्मात्र भी आवश्यकता न हो और परमात्माके सिवाय कोई
लक्ष्य,
ध्येय, उद्देश्य न हो‒ऐसी अनन्यतासे साधनकी सिद्धि शीघ्र और अनायास
हो जाती है । ऐसी अनन्यता न होनेसे ही साधनकी सिद्धि शीघ्र नहीं होती और होनेमें कठिनता
भी होती है । (३२) ‘विविक्तदेशसेवित्वम्’ और ‘अरतिर्जनसंसदि’
(१३ । १०)‒एकान्तमें रहकर साधन
करनेकी रुचि होना ‘विविक्तदेशसेवित्वम्’ है; और साधारण मनुष्य-समुदायमें प्रीति न होना
‘अरतिर्जनसंसदि’
है । तात्पर्य है कि साधकको संसारसे सदा विरक्त रहना चाहिये
। (३३) ‘उत्तमम्’ और
‘परम्’ (१४ । १)‒यहाँ ‘उत्तमम्’ पदका
अर्थ है कि यह ज्ञान प्रकृति और उसके कार्य संसार-शरीरसे सम्बन्ध-विच्छेद करानेवाला
होनेसे श्रेष्ठ है; और ‘परम्’ पदका अर्थ है कि यह ज्ञान परमात्माकी प्राप्ति करानेवाला होनेसे
सर्वोत्कृष्ट है । तात्पर्य है कि साधककी पूर्णता तभी होती है,
जब वह संसारसे सर्वथा ऊँचा उठ जाय और परमात्मतत्त्वको जाननेमें
कोई कमी न रहे । (३४) ‘प्रकाशः’ और ‘ज्ञानम्’ (१४ । ११)‒इन्द्रियों तथा अन्तःकरणमें स्वच्छता, निर्मलता होनेका नाम
‘प्रकाश’ है, जिससे पाँचों ज्ञानेन्द्रियोंके द्वारा पाँचों विषयोंका
साफ-साफ ज्ञान होता है, मनसे किसी भी विषयका ठीक-ठीक मनन होता है और बुद्धिसे साफ-साफ
निर्णय होता है । इन्द्रियों तथा अन्तःकरणमें स्वच्छता,
निर्मलता होनेसे ‘वे विषय शास्त्र और लौकिक मर्यादाके अनुकूल हैं या प्रतिकूल;
उन विषयोंका परिणाम हमारे लिये,
दुनियाके लिये हितकारक है या अहितकारक,
उचित है या अनुचित’ आदि बातोंका ठीक-ठीक विवेक होनेका नाम
‘ज्ञान’
है । तात्पर्य है कि ज्ञानयोगी साधकमें प्रकाश और विवेक होना
अत्यावश्यक है । परन्तु साधक उनका सुख लेगा तो वह अटक जायगा । (३५) ‘प्रवृत्तिः’ और ‘आरम्भः’
(१४ । १२)‒अपने-अपने वर्ण, आश्रम,
देश, वेश आदिमें रहते हुए प्राप्त परिस्थितिके अनुसार जो कर्तव्य-कर्म
सामने आ जाय, उसको सुचारुरूपसे सांगोपांग करना ‘प्रवृत्तिः’
है और भोग तथा संग्रहके उदेश्यसे नये-नये कर्म शुरू करना
‘आरम्भः’
है । तात्पर्य है कि प्रवृत्ति दोषी नहीं है;
क्योंकि प्रवृत्ति तो गुणातीत महापुरुषके द्वारा भी होती है,
पर भोग और संग्रहको लेकर नये-नये कर्मोंका आरम्भ उसके द्वारा
नहीं होता । अतः साधक प्रवृत्तिमें तो निर्लिप्त रहे और नये-नये कर्मोंका आरम्भ न
करे ।
(३६) ‘मोहः’ और ‘अज्ञानम्’ (१४ । १७)‒विपरीत, उल्टा मान लेनेका नाम
‘मोह’
है और अधूरे ज्ञानको ज्ञान मान लेनेका नाम
‘अज्ञान’
है । तात्पर्य है कि अकर्तव्य,
अनित्य, अग्राह्य आदिको ठीक-ठीक न समझना ‘मोह’ है और इन्द्रिय, बुद्धिके ज्ञानको ही ज्ञान मानना अर्थात् अभीतक जितना समझा है,
उसीको पूरा ज्ञान मानना ‘अज्ञान’
है । |