।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
    पौष कृष्ण चतुर्दशी , वि.सं.-२०७९, गुरुवार

गीतामें आये समानार्थक

पदोंका तात्पर्य



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(३१) अनन्ययोगेन’ और भक्तिरव्यभिचारिणी’ (१३ । १०)‒यहाँ ज्ञानयोगका प्रकरण है; अतः ‘अनन्ययोग’ को साधनके विषयमें और ‘अव्यभिचारिणी भक्ति’ को साध्यके विषयमें लेना चाहिये । तात्पर्य है कि साधनमें परमात्माके सिवाय किसी दूसरेकी सहायताकी किंचिन्मात्र भी आवश्यकता न हो और परमात्माके सिवाय कोई लक्ष्य, ध्येय, उद्देश्य न हो‒ऐसी अनन्यतासे साधनकी सिद्धि शीघ्र और अनायास हो जाती है । ऐसी अनन्यता न होनेसे ही साधनकी सिद्धि शीघ्र नहीं होती और होनेमें कठिनता भी होती है ।

(३२) ‘विविक्तदेशसेवित्वम्’ और ‘अरतिर्जनसंसदि’ (१३ । १०)‒एकान्तमें रहकर साधन करनेकी रुचि होना ‘विविक्तदेशसेवित्वम्’ है; और साधारण मनुष्य-समुदायमें प्रीति न होना अरतिर्जनसंसदि’ है । तात्पर्य है कि साधकको संसारसे सदा विरक्त रहना चाहिये ।

(३३) ‘उत्तमम्’ और परम्’ (१४ । १)‒यहाँ ‘उत्तमम्’ पदका अर्थ है कि यह ज्ञान प्रकृति और उसके कार्य संसार-शरीरसे सम्बन्ध-विच्छेद करानेवाला होनेसे श्रेष्ठ है; और परम्’ पदका अर्थ है कि यह ज्ञान परमात्माकी प्राप्‍ति करानेवाला होनेसे सर्वोत्कृष्ट है । तात्पर्य है कि साधककी पूर्णता तभी होती है, जब वह संसारसे सर्वथा ऊँचा उठ जाय और परमात्मतत्त्वको जाननेमें कोई कमी न रहे ।

(३४) प्रकाशः’ और ज्ञानम्’ (१४ । ११)‒इन्द्रियों तथा अन्तःकरणमें स्वच्छता, निर्मलता होनेका नाम प्रकाश’ है, जिससे पाँचों ज्ञानेन्द्रियोंके द्वारा पाँचों विषयोंका साफ-साफ ज्ञान होता है, मनसे किसी भी विषयका ठीक-ठीक मनन होता है और बुद्धिसे साफ-साफ निर्णय होता है । इन्द्रियों तथा अन्तःकरणमें स्वच्छता, निर्मलता होनेसे ‘वे विषय शास्‍त्र और लौकिक मर्यादाके अनुकूल हैं या प्रतिकूल; उन विषयोंका परिणाम हमारे लिये, दुनियाके लिये हितकारक है या अहितकारक, उचित है या अनुचित’ आदि बातोंका ठीक-ठीक विवेक होनेका नाम ज्ञान’ है । तात्पर्य है कि ज्ञानयोगी साधकमें प्रकाश और विवेक होना अत्यावश्यक है । परन्तु साधक उनका सुख लेगा तो वह अटक जायगा ।

(३५) प्रवृत्तिः’ और आरम्भः’ (१४ । १२)‒अपने-अपने वर्ण, आश्रम, देश, वेश आदिमें रहते हुए प्राप्‍त परिस्थितिके अनुसार जो कर्तव्य-कर्म सामने आ जाय, उसको सुचारुरूपसे सांगोपांग करना प्रवृत्तिः’ है और भोग तथा संग्रहके उदेश्यसे नये-नये कर्म शुरू करना आरम्भः’ है । तात्पर्य है कि प्रवृत्ति दोषी नहीं है; क्योंकि प्रवृत्ति तो गुणातीत महापुरुषके द्वारा भी होती है, पर भोग और संग्रहको लेकर नये-नये कर्मोंका आरम्भ उसके द्वारा नहीं होता । अतः साधक प्रवृत्तिमें तो निर्लिप्‍त रहे और नये-नये कर्मोंका आरम्भ न करे ।

(३६) मोहः’ और अज्ञानम्’ (१४ । १७)‒विपरीत, उल्टा मान लेनेका नाम मोह’ है और अधूरे ज्ञानको ज्ञान मान लेनेका नाम अज्ञान’ है । तात्पर्य है कि अकर्तव्य, अनित्य, अग्राह्य आदिको ठीक-ठीक न समझना मोह’ है और इन्द्रिय, बुद्धिके ज्ञानको ही ज्ञान मानना अर्थात् अभीतक जितना समझा है, उसीको पूरा ज्ञान मानना ‘अज्ञान’ है ।