Listen (२५) ‘निवासः’,
‘स्थानम्’ और ‘निधानम्’
(९ । १८)‒भगवान्के चिदंश ये
सभी जीव स्वरूपसे नित्य-निरन्तर भगवान्में ही रहते हैं;
अतः भगवान् सब जीवोंके ‘निवास’ हैं । प्रलय होनेपर प्रकृतिसहित सारा संसार भगवान्में ही रहता
है;
अतः भगवान् इस संसारके ‘स्थान’
हैं । संसारकी चाहे सर्ग-अवस्था हो,
चाहे प्रलय-अवस्था हो, इन सब अवस्थाओंमें प्रकृति, संसार, जीव
तथा जो कुछ देखने, सुनने, समझनेमें आता है, वह सब-का-सब भगवान्में ही रहता है;
अतः भगवान् सबके ‘निधान’ हैं । तात्पर्य है कि भगवान्के सिवाय जीवात्मा और प्रकृति
(संसार)-का दूसरा कोई आधार, अधिष्ठान, आश्रय है ही नहीं । सबके आधार,
आश्रय भगवान् ही हैं‒ऐसा मान लेनेपर भगवान्की तरफ स्वतः आकर्षण
हो जाता है । फिर साधन स्वतः चल पड़ता है । (२६) ‘बुद्धिः’, ‘ज्ञानम्’ और ‘असम्मोहः’
(१० । ४)‒जैसे बल्बमें बिजली
प्रकट होती है, ऐसे ही जिसमें विवेक प्रकट होता है, उसका नाम ‘बुद्धि’
है । सत्-असत्, नित्य-अनित्यके विवेकका नाम
‘ज्ञान’
है । अज्ञानसे जो मूढ़ता होती है,
उसके अभावका नाम ‘असम्मोह’
है । तात्पर्य है कि ये सब भगवान्से ही प्रकट होते हैं । अतः
साधक इनको अपना गुण मानकर अभिमान न करे । (२७) ‘विभूतिमत्’, ‘श्रीमत्’ और ‘ऊर्जितम्’ (१० । ४१)‒ऐश्वर्ययुक्त,
वस्तु, व्यक्ति आदिका नाम ‘विभूतिमत्’
है;
शोभायुक्त वस्तु, व्यक्ति आदिका नाम ‘श्रीमत्’ है;
और बलयुक्त वस्तु, व्यक्ति आदिका नाम ‘ऊर्जित’ है । तात्पर्य है कि ये सभी भगवान्के गुण हैं,
किसीके व्यक्तिगत गुण नहीं । इनको व्यक्तिगत माननेसे ही अभिमान
पैदा होता है । अतः इनको कभी व्यक्तिगत न माने । (२८) ‘करालानि’
और ‘भयानकानि’
(११ । २७)‒अर्जुनको विराट्रूप
भगवान्के मुख दाढ़ोंके कारण बहुत बड़े-बड़े, विस्तृत दीख रहे थे‒इस बातको ‘करालानि’
पदसे कहा गया है; और उनको देखकर भय पैदा हो रहा था‒इस बातको
‘भयानकानि’
पदसे कहा गया है । तात्पर्य है कि भगवान्का विराट्रूप कराल
तथा भयानक नहीं है; किंतु अपने मूढ़भावके कारण ही वह कराल तथा भयानक दीखता है । इसीलिये
भगवान्ने ‘मा ते व्यथा मा च विमूढ़भावः’ (११ ।
४९) कहा है । (२९) ‘अचलम्’ और ‘ध्रुवम्’ (१२ । ३)‒जो चलन-क्रियासे रहित है,
कहीं आता-जाता नहीं, उसका नाम ‘अचल’ है; और जो अटल एवं निश्चितरूपसे रहता है,
जिसकी सत्ता अखण्ड रहती है, उसका नाम ‘ध्रुव’
है । तात्पर्य है कि परमात्मतत्त्वको कोई चलायमान नहीं कर सकता
और वह स्वयं भी स्वरूपसे कभी विचलित नहीं होता, नित्य अटलरूपसे ज्यों-का-त्यों रहता है ।
(३०) ‘असक्तिः’
और ‘अनभिष्वङ्गः’
(१३ । ९)‒चित्तपर अनुकूल वस्तु,
व्यक्ति, परिस्थिति आदिका रंग चढ़ जाना,
उनमें प्रियता पैदा हो जाना
‘सक्तिः’ है और उसके अभावका नाम
‘असक्तिः’
है । वस्तु, व्यक्ति आदिके बनने-बिगड़नेसे, रहने-न रहनेसे स्वयं (कर्ता)-पर उसका असर पड़नेका नाम ‘अभिष्वङ्गः’
है और उसके अभावका नाम ‘अनभिष्वङ्गः’
है । तात्पर्य है कि साधककी किसी व्यक्ति, पदार्थ आदिमें आसक्ति
नहीं होनी चाहिये तथा किसी पदार्थ और व्यक्तिसे अपनी अभिन्नता, घनिष्ठता, एकरूपता
भी नहीं होनी चाहिये । कारण कि जड़ताके साथ स्वयंकी एकता कभी थी नहीं,
है नहीं, होगी नहीं, हो सकती नहीं और होनी सम्भव ही नहीं । |