।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
    पौष कृष्ण त्रयोदशी , वि.सं.-२०७९, बुधवार

गीतामें आये समानार्थक

पदोंका तात्पर्य



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(२५) निवासः’, स्थानम्’ और निधानम्’ (९ । १८)‒भगवान्‌के चिदंश ये सभी जीव स्वरूपसे नित्य-निरन्तर भगवान्‌में ही रहते हैं; अतः भगवान्‌ सब जीवोंके निवास’ हैं । प्रलय होनेपर प्रकृतिसहित सारा संसार भगवान्‌में ही रहता है; अतः भगवान्‌ इस संसारके स्थान’ हैं । संसारकी चाहे सर्ग-अवस्था हो, चाहे प्रलय-अवस्था हो, इन सब अवस्थाओंमें प्रकृति, संसार, जीव तथा जो कुछ देखने, सुनने, समझनेमें आता है, वह सब-का-सब भगवान्‌में ही रहता है; अतः भगवान्‌ सबके निधान’ हैं । तात्पर्य है कि भगवान्‌के सिवाय जीवात्मा और प्रकृति (संसार)-का दूसरा कोई आधार, अधिष्ठान, आश्रय है ही नहीं । सबके आधार, आश्रय भगवान्‌ ही हैं‒ऐसा मान लेनेपर भगवान्‌की तरफ स्वतः आकर्षण हो जाता है । फिर साधन स्वतः चल पड़ता है ।

(२६) बुद्धिः’,ज्ञानम्’ और असम्मोहः’ (१० । ४)‒जैसे बल्बमें बिजली प्रकट होती है, ऐसे ही जिसमें विवेक प्रकट होता है, उसका नाम बुद्धि’ है । सत्-असत्, नित्य-अनित्यके विवेकका नाम ज्ञान’ है । अज्ञानसे जो मूढ़ता होती है, उसके अभावका नाम असम्मोह’ है । तात्पर्य है कि ये सब भगवान्‌से ही प्रकट होते हैं । अतः साधक इनको अपना गुण मानकर अभिमान न करे ।

(२७) ‘विभूतिमत्’,श्रीमत्’ और ‘ऊर्जितम्’ (१० । ४१)‒ऐश्‍वर्ययुक्त, वस्तु, व्यक्ति आदिका नाम ‘विभूतिमत्’ है; शोभायुक्त वस्तु, व्यक्ति आदिका नाम श्रीमत्’ है; और बलयुक्त वस्तु, व्यक्ति आदिका नाम ‘ऊर्जित’ है । तात्पर्य है कि ये सभी भगवान्‌के गुण हैं, किसीके व्यक्तिगत गुण नहीं । इनको व्यक्तिगत माननेसे ही अभिमान पैदा होता है । अतः इनको कभी व्यक्तिगत न माने ।

(२८) ‘करालानि’ और भयानकानि’ (११ । २७)‒अर्जुनको विराट्‌रूप भगवान्‌के मुख दाढ़ोंके कारण बहुत बड़े-बड़े, विस्तृत दीख रहे थे‒इस बातको ‘करालानि’ पदसे कहा गया है; और उनको देखकर भय पैदा हो रहा था‒इस बातको भयानकानि’ पदसे कहा गया है । तात्पर्य है कि भगवान्‌का विराट्‌रूप कराल तथा भयानक नहीं है; किंतु अपने मूढ़भावके कारण ही वह कराल तथा भयानक दीखता है । इसीलिये भगवान्‌ने मा ते व्यथा मा च विमूढ़भावः’ (११ । ४९) कहा है ।

(२९) अचलम्’ और ध्रुवम्’ (१२ । ३)‒जो चलन-क्रियासे रहित है, कहीं आता-जाता नहीं, उसका नाम अचल’ है; और जो अटल एवं निश्‍चितरूपसे रहता है, जिसकी सत्ता अखण्ड रहती है, उसका नाम ध्रुव’ है । तात्पर्य है कि परमात्मतत्त्वको कोई चलायमान नहीं कर सकता और वह स्वयं भी स्वरूपसे कभी विचलित नहीं होता, नित्य अटलरूपसे ज्यों-का-त्यों रहता है ।

(३०) असक्तिः’ और अनभिष्वङ्गः’ (१३ । ९)‒चित्तपर अनुकूल वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदिका रंग चढ़ जाना, उनमें प्रियता पैदा हो जाना सक्तिः’ है और उसके अभावका नाम असक्तिः’ है । वस्तु, व्यक्ति आदिके बनने-बिगड़नेसे, रहने-न रहनेसे स्वयं (कर्ता)-पर उसका असर पड़नेका नाम अभिष्वङ्गः’ है और उसके अभावका नाम अनभिष्वङ्गः’ है । तात्पर्य है कि साधककी किसी व्यक्ति, पदार्थ आदिमें आसक्ति नहीं होनी चाहिये तथा किसी पदार्थ और व्यक्तिसे अपनी अभिन्‍नता, घनिष्ठता, एकरूपता भी नहीं होनी चाहिये । कारण कि जड़ताके साथ स्वयंकी एकता कभी थी नहीं, है नहीं, होगी नहीं, हो सकती नहीं और होनी सम्भव ही नहीं ।