Listen (१९) ‘अस्थिरम्’ और ‘चंचलम्’ (६ । २६)‒यह मन ध्येय (साध्य)-में टिकता नहीं,
लगता नहीं, इसलिये इसको
‘अस्थिरम्’ कहा गया है । यह मन तरह-तरहके सांसारिक पदार्थोंका चिन्तन करता
रहता है,
इसलिये इसको ‘चंचलम्’ कहा गया है । तात्पर्य है कि समाधि लगनेमें कई दोष बाधक होते
हैं,
जिनमें चार दोष मुख्य हैं‒विक्षेप (चंचलता), लय (निद्रा-आलस्य),
कषाय
(अन्तःकरणकी अशुद्धि) और रसास्वाद
(ध्यानावस्थामें जो सुख मिलता है, उसमें अटक जाना) । ये चार दोष रहनेसे समाधिकी सिद्धि नहीं होती
। परन्तु गीताने इनमेंसे दो दोषोंका ही वर्णन किया है;
क्योंकि चारों दोषोंमें लय (अस्थिरता) और विक्षेप (चंचलता)‒ये दो दोष मुख्य
हैं । अतः समाधि लगानेवाले साधकको इन दो दोषोंसे सदा सावधान रहना चाहिये । (२०) ‘बलवत्’ और
‘दृढम्’ (६ । ३४)‒कामना, ममता, आसक्तिके कारण मनका पदार्थों, व्यक्तियोंके प्रति गाढ़ खिंचाव रहता है । इससे मन किसी तरह
भी उनकी ओर जाना छोड़ता नहीं, हठ कर लेता है; अतः मनको ‘दृढम्’ (जिद्दी) कहा गया है । मनका यह हठ बहुत बलवान् होता है;
अतः मनको ‘बलवत्’ कहा गया है
। तात्पर्य है कि मनको वशमें करना बड़ा कठिन है, पर यह कठिन तभी होता है, जब साधक मनको अपना मानता है । ममतारूपी मल रहते हुए मन शुद्ध
नहीं होता । अगर साधक विवेकपूर्वक ममताका त्याग कर दे तो मनको वशमें करना सुगम हो जायगा
। (२१) ‘परम्’ और ‘अनुत्तमम्’
(७ । २४)‒भगवान् अजन्मा और
अविनाशी होते हुए तथा सम्पूर्ण प्राणियोंके ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृतिको वशमें करके योगमायासे
प्रकट होते हैं (४ । ६)‒यह भगवान्का ‘परम्’ भाव है,
और भगवान्से उत्तम, श्रेष्ठ दूसरा कोई है ही नहीं (१५ । १७-१८)‒यह भगवान्का
‘अनुत्तमम्’ भाव है । तात्पर्य है कि भगवान् सर्वश्रेष्ठ हैं,
उत्तम-से-उत्तम हैं । भगवान्के समान श्रेष्ठ कोई था नहीं, है
नहीं,
होगा नहीं और हो सकता भी नहीं । (२२) ‘अत्र’
और ‘अस्मिन्’ (८ । २)‒यहाँ ‘अत्र’ पद प्रकरणका वाचक है और ‘अस्मिन्’
पद मनुष्यशरीरका वाचक है । तात्पर्य है कि सम्पूर्ण स्थवार-जंगम
प्राणियोंमें रहते हुए भी परमात्माका अनुभव मनुष्यशरीरमें ही हो सकता है, दूसरे शरीरोंमें नहीं । (२३) ‘सततम्’ और ‘नित्यशः’
(८ । १४)‒यहाँ
‘सततम्’ पदका अर्थ है‒निरन्तर स्मरण करना अर्थात् जबसे नींद खुले, तबसे लेकर रातमें नींद
आनेतक स्मरण करते रहना; और ‘नित्यशः’
पदका अर्थ है‒सदा स्मरण करना अर्थात् जबसे इस बातकी तरफ वृत्ति
हुई, खयाल हुआ, तबसे लेकर मृत्युतक स्मरण करते रहना । तात्पर्य है कि साधकका साधन
नित्य-निरन्तर होना चाहिये, जिससे भगवान् सुलभ हो जाते हैं ।
(२४) ‘क्रतुः’
और ‘यज्ञः’
(९ । १६)‒जिसमें वैदिक मन्त्रों और विधियोंकी मुख्यता
होती है, वह ‘क्रतु’
कहलाता है; और जिसमें पौराणिक, स्मार्त मन्त्रों और विधियोंकी मुख्यता होती
है, वह ‘यज्ञ’ कहलाता है । तात्पर्य है कि वैदिक तथा पौराणिक‒दोनों प्रकारके
यज्ञोंको निष्कामभावसे तथा उत्साह और तत्परतासे विधिपूर्वक करना चाहिये । |