।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
    पौष कृष्ण द्वादशी , वि.सं.-२०७९, मंगलवार

गीतामें आये समानार्थक

पदोंका तात्पर्य



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(१९) अस्थिरम्’ और चंचलम्’ (६ । २६)‒यह मन ध्येय (साध्य)-में टिकता नहीं, लगता नहीं, इसलिये इसको अस्थिरम्’ कहा गया है । यह मन तरह-तरहके सांसारिक पदार्थोंका चिन्तन करता रहता है, इसलिये इसको चंचलम्’ कहा गया है । तात्पर्य है कि समाधि लगनेमें कई दोष बाधक होते हैं, जिनमें चार दोष मुख्य हैं‒विक्षेप (चंचलता), लय (निद्रा-आलस्य), कषाय (अन्तःकरणकी अशुद्धि) और रसास्वाद (ध्यानावस्थामें जो सुख मिलता है, उसमें अटक जाना) । ये चार दोष रहनेसे समाधिकी सिद्धि नहीं होती । परन्तु गीताने इनमेंसे दो दोषोंका ही वर्णन किया है; क्योंकि चारों दोषोंमें लय (अस्थिरता) और विक्षेप (चंचलता)‒ये दो दोष मुख्य हैं । अतः समाधि लगानेवाले साधकको इन दो दोषोंसे सदा सावधान रहना चाहिये ।

(२०) ‘बलवत्’ और दृढम्’ (६ । ३४)‒कामना, ममता, आसक्तिके कारण मनका पदार्थों, व्यक्तियोंके प्रति गाढ़ खिंचाव रहता है । इससे मन किसी तरह भी उनकी ओर जाना छोड़ता नहीं, हठ कर लेता है; अतः मनको दृढम्’ (जिद्दी) कहा गया है । मनका यह हठ बहुत बलवान् होता है; अतः मनको ‘बलवत्’ कहा गया है । तात्पर्य है कि मनको वशमें करना बड़ा कठिन है, पर यह कठिन तभी होता है, जब साधक मनको अपना मानता है । ममतारूपी मल रहते हुए मन शुद्ध नहीं होता । अगर साधक विवेकपूर्वक ममताका त्याग कर दे तो मनको वशमें करना सुगम हो जायगा ।

(२१) ‘परम्’ और अनुत्तमम्’ (७ । २४)‒भगवान्‌ अजन्मा और अविनाशी होते हुए तथा सम्पूर्ण प्राणियोंके ईश्‍वर होते हुए भी अपनी प्रकृतिको वशमें करके योगमायासे प्रकट होते हैं (४ । ६)‒यह भगवान्‌का ‘परम्’ भाव है, और भगवान्‌से उत्तम, श्रेष्ठ दूसरा कोई है ही नहीं (१५ । १७-१८)‒यह भगवान्‌का अनुत्तमम्’ भाव है । तात्पर्य है कि भगवान्‌ सर्वश्रेष्ठ हैं, उत्तम-से-उत्तम हैं । भगवान्‌के समान श्रेष्ठ कोई था नहीं, है नहीं, होगा नहीं और हो सकता भी नहीं ।

(२२) अत्र’ और ‘अस्मिन्’ (८ । २)‒यहाँ ‘अत्र’ पद प्रकरणका वाचक है और अस्मिन्’ पद मनुष्यशरीरका वाचक है । तात्पर्य है कि सम्पूर्ण स्थवार-जंगम प्राणियोंमें रहते हुए भी परमात्माका अनुभव मनुष्यशरीरमें ही हो सकता है, दूसरे शरीरोंमें नहीं ।

(२३) सततम्’ और नित्यशः’ (८ । १४)‒यहाँ ‘सततम्’ पदका अर्थ है‒निरन्तर स्मरण करना अर्थात् जबसे नींद खुले, तबसे लेकर रातमें नींद आनेतक स्मरण करते रहना; और नित्यशः’ पदका अर्थ है‒सदा स्मरण करना अर्थात् जबसे इस बातकी तरफ वृत्ति हुई, खयाल हुआ, तबसे लेकर मृत्युतक स्मरण करते रहना । तात्पर्य है कि साधकका साधन नित्य-निरन्तर होना चाहिये, जिससे भगवान्‌ सुलभ हो जाते हैं ।

(२४) क्रतुः’ और यज्ञः’ (९ । १६)जिसमें वैदिक मन्त्रों और विधियोंकी मुख्यता होती है, वह क्रतु’ कहलाता है; और जिसमें पौराणिक, स्मार्त मन्त्रों और विधियोंकी मुख्यता होती है, वह यज्ञ’ कहलाता है । तात्पर्य है कि वैदिक तथा पौराणिक‒दोनों प्रकारके यज्ञोंको निष्कामभावसे तथा उत्साह और तत्परतासे विधिपूर्वक करना चाहिये ।