Listen (१३) ‘तत्त्वदर्शिनः’
और ‘ज्ञानिनः’ (४ । ३४)‒जो परमात्मतत्त्वके अनुभवी हैं, उनको
‘तत्त्वदर्शिनः’
पदसे और जो वेदों तथा शास्त्रोंको भलीभाँति जाननेवाले हैं,
उनको ‘ज्ञानिनः’
पदसे कहा गया है । तात्पर्य है कि ज्ञानमार्गी साधकको परमात्मतत्त्वकी
प्राप्तिके लिये श्रोत्रिय (ज्ञानी) और ब्रह्मनिष्ठ (तत्त्वदर्शी) गुरुकी शरणमें जाना
चाहिये‒इसी बातको लेकर उपर्युक्त दो विशेषण आये हैं । परन्तु दोनोंमें भी जिसकी शरणमें
जाय, उसका ब्रह्मनिष्ठ होना बहुत आवश्यक है । (१४) ‘शीतोष्णसुखदुःखेषु’ अर्थात् ‘शीत-उष्ण’
और ‘सुख-दुःख’ (६ । ७; १२ । १८)‒यहाँ ‘शीत-उष्ण’ पदसे प्रारब्धके अनुसार मिलनेवाली अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति
ली गयी है; और ‘सुख-दुःख’ पदसे वर्तमानमें किये जानेवाले क्रियमाण कर्मोंकी तात्कालिक सिद्धि-असिद्धि ली
गयी है । तात्पर्य है कि कर्मयोग, भक्तियोग आदि किसी भी मार्गका साधक क्यों न हो,
उसको पुराने कर्मोंके फलमें और वर्तमानमें किये हुए कर्मोंके
तात्कालिक फलमें सदा प्रसन्न तथा सम रहना चाहिये । (१५) ‘सुहृद्’ और ‘मित्र’
(६ । ९)‒जो ममतारहित होकर बिना
कारण सबका हित चाहनेवाला और हित करनेवाला है, वह
‘सुहृद्’ है; और जो उपकारके बदलेमें उपकार करनेवाला है,
वह ‘मित्र’
है । तात्पर्य है कि सुहृद् और मित्रके प्राप्त होनेपर साधकके
अन्तःकरणमें विषमता नहीं होनी चाहिये अर्थात् ‘यह सुहृद् है और यह मित्र है’‒ऐसा भिन्न-भिन्न ज्ञान होनेपर भी समता बनी रहनी चाहिये,
विकार नहीं होना चाहिये । ज्ञान होना दोषी नहीं है,
विकार होना दोषी है । (१६) ‘अरि’ और ‘द्वेष्य’ (६ । ९)‒जो बिना कारण अहित करनेवाला है,
वह ‘अरि’ है; और जो अपने स्वार्थको लेकर अहित (अपकार) करनेवाला है, वह ‘द्वेष्य’ है । तात्पर्य है कि कोई व्यक्ति चाहे किसी कारणको
लेकर हमारा अनिष्ट करे, चाहे बिना कारण हमारा अनिष्ट करे,
उसको दोषी नहीं मानना चाहिये । कारण कि हमारा जो कुछ अनिष्ट
हो रहा है, वह हमारे ही कर्मोंका फल है । वह बेचारा तो उसमें निमित्तमात्र बन रहा है । अतः
उसपर दया आनी चाहिये । (१७) ‘सर्वान्’ और ‘अशेषतः’
(६ । २४)‒यहाँ सम्पूर्ण कामनाओंके
लिये ‘सर्वान्’ पद आया है; और जिनसे कामनाएँ उत्पन्न होती हैं, उन सम्पूर्ण संकल्पोंके लिये
‘अशेषतः’ पद आया है । तात्पर्य है कि ध्यानयोगीमें किसी घटना, परिस्थिति आदिको लेकर कोई
संकल्प तथा कामना पैदा नहीं होनी चाहिये ।
(१८) ‘शनैः
शनैरुपरमेत्’ और
‘न किञ्चिदपि
चिन्तयेत्’ (६ । २५)‒संसारका
चिन्तन न करे, उससे उपराम हो जाय‒यह बात ‘शनैः
शनैरुपरमेत्’ पदोंसे कही गयी
है;
और कुछ भी चिन्तन न करे, न संसारका चिन्तन करे, न परमात्माका‒यह बात
‘न किञ्चिदपि
चिन्तयेत्’ पदोंसे कही गयी
है । तात्पर्य है कि ध्यानयोगका साधक चिन्तन करने अथवा न करने‒दोनोंसे तटस्थ,
उपराम हो जाय । वह संसारसे तो सर्वथा उपराम रहे ही, परमात्मतत्त्वका
अनुभव करके चिन्तन-रहित हो जाय । कारण कि परमात्मतत्त्वका चिन्तन करनेसे परमात्मतत्त्व
और अपने स्वरूपका भेद रहता है और कुछ भी चिन्तन न करनेसे स्वतःसिद्ध अभिन्नता प्राप्त
हो जाती है । तटस्थ होनेपर वास्तविक तत्त्वका जो लाभ होता है, वह किसीमें आग्रह रहनेपर
नहीं होता; क्योंकि आग्रह रहनेके कारण साधककी विषमता मिटती नहीं । जो कुछ महिमा है,
वह समताकी ही है । |