।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
    पौष कृष्ण एकादशी , वि.सं.-२०७९, सोमवार

गीतामें आये समानार्थक

पदोंका तात्पर्य



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(१३) ‘तत्त्वदर्शिनः’ और ज्ञानिनः’ (४ । ३४)‒जो परमात्मतत्त्वके अनुभवी हैं, उनको तत्त्वदर्शिनः’ पदसे और जो वेदों तथा शास्‍त्रोंको भलीभाँति जाननेवाले हैं, उनको ज्ञानिनः’ पदसे कहा गया है । तात्पर्य है कि ज्ञानमार्गी साधकको परमात्मतत्त्वकी प्राप्‍तिके लिये श्रोत्रिय (ज्ञानी) और ब्रह्मनिष्ठ (तत्त्वदर्शी) गुरुकी शरणमें जाना चाहिये‒इसी बातको लेकर उपर्युक्त दो विशेषण आये हैं । परन्तु दोनोंमें भी जिसकी शरणमें जाय, उसका ब्रह्मनिष्ठ होना बहुत आवश्यक है ।

(१४) शीतोष्णसुखदुःखेषु अर्थात्शीत-उष्ण और सुख-दुःख (६ । ७; १२ । १८)‒यहाँ शीत-उष्ण’ पदसे प्रारब्धके अनुसार मिलनेवाली अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति ली गयी है; और सुख-दुःख’ पदसे वर्तमानमें किये जानेवाले क्रियमाण कर्मोंकी तात्कालिक सिद्धि-असिद्धि ली गयी है । तात्पर्य है कि कर्मयोग, भक्तियोग आदि किसी भी मार्गका साधक क्यों न हो, उसको पुराने कर्मोंके फलमें और वर्तमानमें किये हुए कर्मोंके तात्कालिक फलमें सदा प्रसन्‍न तथा सम रहना चाहिये ।

(१५) सुहृद्’ और मित्र’ (६ । ९)‒जो ममतारहित होकर बिना कारण सबका हित चाहनेवाला और हित करनेवाला है, वह सुहृद्’ है; और जो उपकारके बदलेमें उपकार करनेवाला है, वह मित्र’ है । तात्पर्य है कि सुहृद् और मित्रके प्राप्‍त होनेपर साधकके अन्तःकरणमें विषमता नहीं होनी चाहिये अर्थात् यह सुहृद् है और यह मित्र है’ऐसा भिन्‍न-भिन्‍न ज्ञान होनेपर भी समता बनी रहनी चाहिये, विकार नहीं होना चाहिये । ज्ञान होना दोषी नहीं है, विकार होना दोषी है ।

(१६) अरि’ और ‘द्वेष्य’ (६ । ९)‒जो बिना कारण अहित करनेवाला है, वह अरि’ है; और जो अपने स्वार्थको लेकर अहित (अपकार) करनेवाला है, वह ‘द्वेष्य’ है । तात्पर्य है कि कोई व्यक्ति चाहे किसी कारणको लेकर हमारा अनिष्ट करे, चाहे बिना कारण हमारा अनिष्ट करे, उसको दोषी नहीं मानना चाहिये । कारण कि हमारा जो कुछ अनिष्ट हो रहा है, वह हमारे ही कर्मोंका फल है । वह बेचारा तो उसमें निमित्तमात्र बन रहा है । अतः उसपर दया आनी चाहिये ।

(१७) सर्वान्’ और अशेषतः’ (६ । २४)‒यहाँ सम्पूर्ण कामनाओंके लिये सर्वान्’ पद आया है; और जिनसे कामनाएँ उत्पन्‍न होती हैं, उन सम्पूर्ण संकल्पोंके लिये ‘अशेषतः’ पद आया है । तात्पर्य है कि ध्यानयोगीमें किसी घटना, परिस्थिति आदिको लेकर कोई संकल्प तथा कामना पैदा नहीं होनी चाहिये ।

(१८) शनैः शनैरुपरमेत्’ और न किञ्चिदपि चिन्तयेत्’ (६ । २५)‒संसारका चिन्तन न करे, उससे उपराम हो जाय‒यह बात शनैः शनैरुपरमेत्’ पदोंसे कही गयी है; और कुछ भी चिन्तन न करे, न संसारका चिन्तन करे, न परमात्माका‒यह बात न किञ्चिदपि चिन्तयेत्’ पदोंसे कही गयी है । तात्पर्य है कि ध्यानयोगका साधक चिन्तन करने अथवा न करने‒दोनोंसे तटस्थ, उपराम हो जाय । वह संसारसे तो सर्वथा उपराम रहे ही, परमात्मतत्त्वका अनुभव करके चिन्तन-रहित हो जाय । कारण कि परमात्मतत्त्वका चिन्तन करनेसे परमात्मतत्त्व और अपने स्वरूपका भेद रहता है और कुछ भी चिन्तन न करनेसे स्वतःसिद्ध अभिन्‍नता प्राप्‍त हो जाती है । तटस्थ होनेपर वास्तविक तत्त्वका जो लाभ होता है, वह किसीमें आग्रह रहनेपर नहीं होता; क्योंकि आग्रह रहनेके कारण साधककी विषमता मिटती नहीं । जो कुछ महिमा है, वह समताकी ही है ।