Listen (७) ‘निश्चला’
और ‘अचला’
(२ । ५३)‒संसारसे हटनेमें तो
बुद्धि ‘निश्चला’ अर्थात् एक निश्चयवाली होनी चाहिये और परमात्मामें लगनेमें बुद्धि
‘अचला’ अर्थात् स्थिर रहनेवाली होनी चाहिये । तात्पर्य है कि संसारमें
राग न रहनेपर किसी भी सांसारिक संयोग-वियोगसे बुद्धि विचलित नहीं होती;
और परमात्मतत्त्वमें बुद्धि अचल होनेपर बुद्धिमें संशय, सन्देह
आदिकी रेखा आ ही नहीं सकती । अचल बुद्धि तो सुषुप्ति-अवस्थामें भी हो जाती है,
पर उसमें सन्देह निवृत्त नहीं होता, जागनेपर वैसा-का-वैसा ही
सन्देह रहता है । (८) ‘विहाय
कामान्’ और ‘निःस्पृहः’
(२ । ७१)‒मेरेको अमुक वस्तु
मिल जाय‒इस कामनाका न रहना ‘विहाय
कामान्’ पदोंसे और जीवन-निर्वाहकी
भी आवश्यकताका न रहना ‘निःस्पृहः’
पदसे कहा गया है । तात्पर्य है कि वैराग्य होनेपर कामना तो नहीं
रहती,
पर ‘शरीर निर्वाह हो जाय’‒ऐसी स्पृहा रह सकती है । परन्तु बोध होनेपर स्पृहा भी नहीं रहती
। वह सर्वथा निःस्पृह हो जाता है । (९) ‘आत्मतृप्तः’
और ‘आत्मन्येव
च संतुष्टः’ (३ । १७)‒जबतक मनुष्यका सम्बन्ध संसारसे रहता है, तबतक वह भोजन (अन्न-जल)-से
‘तृप्ति’
और धन आदिकी प्राप्तिसे
‘संतुष्टि’ मानता है । परन्तु कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुषका संसारसे सम्बन्ध
न रहनेसे उसकी ‘तृप्ति’ और ‘संतुष्टि’‒दोनों एक ही तत्त्व (आत्मा)-में हो जाती है । तात्पर्य
है कि उस महापुरुषको किसी देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदिकी अपेक्षा,
आवश्यकता रहती ही नहीं; क्योंकि वह जड़तासे अलग होकर चिन्मय-तत्त्वमें स्थित हो गया है
। (१०) ‘सर्वज्ञानविमूढ़ान्’ और
‘अचेतसः’ (३ । ३२)‒जो मनुष्य भगवान्के मतका अनुसरण नहीं करते, वे सब
प्रकारके सांसारिक ज्ञानों (विद्याओं, कलाओं आदि)-में मोहित रहते हैं‒इस बातको
‘सर्वज्ञानविमूढ़ान्’ पदसे कहा गया है । उन मनुष्योंमें सत्-असत्, धर्म-अधर्म, सार-असार
आदि पारमार्थिक बातोंका भी ज्ञान (विवेक) नहीं होता‒इस बातको
‘अचेतसः’
पदसे कहा गया है । तात्पर्य है कि उनकी सांसारिक उत्पत्ति-विनाशशील
पदार्थोंकी तरफ सम्मुखता और वास्तविक तत्त्वकी तरफसे सर्वथा विमुखता रहती है । (११) ‘त्यक्त्वा
कर्मफलासङ्गम्’ और
‘निराश्रयः’
(४ । २०)‒कर्मफलका त्याग करना
अथवा कर्मका आश्रय न लेना एक ही बात है; क्योंकि आगे (६ । १में) यही बात कही गयी है कि कर्मफलका आश्रय
न लेकर कर्तव्य-कर्म करना चाहिये‒‘अनाश्रितः कर्मफलम्’ । अतः ‘त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गम्’ पदोंसे कर्म और कर्मफलकी आसक्तिका त्याग लेना चाहिये और
‘निराश्रयः’
पदसे प्राप्त देश, काल आदिके आश्रयसे रहित होना लेना चाहिये
। तात्पर्य है कि साधकको व्यष्टि कर्म-सामग्रीकी आसक्तिसे भी रहित होना चाहिये और समष्टि
देश, काल आदिके आश्रयसे भी रहित होना चाहिये ।
(१२) ‘सर्वम्’ और
‘अखिलम्’ (४ । ३३)‒प्रकृति दो ही रूपोंसे प्रकट होती है‒क्रियारूपसे और पदार्थरूपसे । अतः
‘सर्वम्’ पदका अर्थ है‒सम्पूर्ण क्रियाएँ;
और ‘अखिलम्’ पदका अर्थ है‒सम्पूर्ण पदार्थ । तात्पर्य है कि परमात्मतत्त्वकी
जिज्ञासा जाग्रत् होनेपर क्रियाओं और पदार्थोंमें मन आकृष्ट नहीं होता अर्थात् भोग
भोगने और संग्रह करनेकी लालसा समाप्त हो जाती है । |