।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
      पौष कृष्ण दशमी , वि.सं.-२०७९, रविवार

गीतामें आये समानार्थक

पदोंका तात्पर्य



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(७) निश्‍चला’ और अचला’ (२ । ५३)‒संसारसे हटनेमें तो बुद्धि निश्‍चला’ अर्थात् एक निश्‍चयवाली होनी चाहिये और परमात्मामें लगनेमें बुद्धि अचला’ अर्थात् स्थिर रहनेवाली होनी चाहिये । तात्पर्य है कि संसारमें राग न रहनेपर किसी भी सांसारिक संयोग-वियोगसे बुद्धि विचलित नहीं होती; और परमात्मतत्त्वमें बुद्धि अचल होनेपर बुद्धिमें संशय, सन्देह आदिकी रेखा आ ही नहीं सकती । अचल बुद्धि तो सुषुप्‍ति-अवस्थामें भी हो जाती है, पर उसमें सन्देह निवृत्त नहीं होता, जागनेपर वैसा-का-वैसा ही सन्देह रहता है ।

(८) विहाय कामान्’ और निःस्पृहः’ (२ । ७१)‒मेरेको अमुक वस्तु मिल जाय‒इस कामनाका न रहना विहाय कामान्’ पदोंसे और जीवन-निर्वाहकी भी आवश्यकताका न रहना निःस्पृहः’ पदसे कहा गया है । तात्पर्य है कि वैराग्य होनेपर कामना तो नहीं रहती, पर शरीर निर्वाह हो जाय’ऐसी स्पृहा रह सकती है । परन्तु बोध होनेपर स्पृहा भी नहीं रहती । वह सर्वथा निःस्पृह हो जाता है ।

(९) आत्मतृप्तः’ और आत्मन्येव च संतुष्टः’ (३ । १७)‒जबतक मनुष्यका सम्बन्ध संसारसे रहता है, तबतक वह भोजन (अन्‍न-जल)-से तृप्‍ति’ और धन आदिकी प्राप्‍तिसे संतुष्टि’ मानता है । परन्तु कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुषका संसारसे सम्बन्ध न रहनेसे उसकीतृप्‍ति’ औरसंतुष्टि’‒दोनों एक ही तत्त्व (आत्मा)-में हो जाती है । तात्पर्य है कि उस महापुरुषको किसी देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदिकी अपेक्षा, आवश्यकता रहती ही नहीं; क्योंकि वह जड़तासे अलग होकर चिन्मय-तत्त्वमें स्थित हो गया है ।

(१०) ‘सर्वज्ञानविमूढ़ान्’ और अचेतसः’ (३ । ३२)‒जो मनुष्य भगवान्‌के मतका अनुसरण नहीं करते, वे सब प्रकारके सांसारिक ज्ञानों (विद्याओं, कलाओं आदि)-में मोहित रहते हैं‒इस बातको सर्वज्ञानविमूढ़ान्’ पदसे कहा गया है । उन मनुष्योंमें सत्-असत्, धर्म-अधर्म, सार-असार आदि पारमार्थिक बातोंका भी ज्ञान (विवेक) नहीं होता‒इस बातको अचेतसः’ पदसे कहा गया है । तात्पर्य है कि उनकी सांसारिक उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थोंकी तरफ सम्मुखता और वास्तविक तत्त्वकी तरफसे सर्वथा विमुखता रहती है ।

(११) त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गम्’ और निराश्रयः’ (४ । २०)‒कर्मफलका त्याग करना अथवा कर्मका आश्रय न लेना एक ही बात है; क्योंकि आगे (६ । १में) यही बात कही गयी है कि कर्मफलका आश्रय न लेकर कर्तव्य-कर्म करना चाहिये‒अनाश्रितः कर्मफलम्’ । अतः ‘त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गम्’ पदोंसे कर्म और कर्मफलकी आसक्तिका त्याग लेना चाहिये और निराश्रयः’ पदसे प्राप्‍त देश, काल आदिके आश्रयसे रहित होना लेना चाहिये । तात्पर्य है कि साधकको व्यष्टि कर्म-सामग्रीकी आसक्तिसे भी रहित होना चाहिये और समष्टि देश, काल आदिके आश्रयसे भी रहित होना चाहिये ।

(१२) ‘सर्वम्’ और ‘अखिलम्’ (४ । ३३)‒प्रकृति दो ही रूपोंसे प्रकट होती है‒क्रियारूपसे और पदार्थरूपसे । अतः सर्वम्’ पदका अर्थ है‒सम्पूर्ण क्रियाएँ; और अखिलम्’ पदका अर्थ है‒सम्पूर्ण पदार्थ । तात्पर्य है कि परमात्मतत्त्वकी जिज्ञासा जाग्रत् होनेपर क्रियाओं और पदार्थोंमें मन आकृष्ट नहीं होता अर्थात् भोग भोगने और संग्रह करनेकी लालसा समाप्‍त हो जाती है ।