।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
      पौष कृष्ण नवमी , वि.सं.-२०७९, शनिवार

गीतामें आये समानार्थक

पदोंका तात्पर्य



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समानार्थानि चोक्तानि पदानि यत्र यत्र वै ।

तात्पर्यं तत्र  तत्रापि  तेषां  प्रोक्तं प्रसंगतः ॥

पदों (शब्दों)-का अर्थ प्रसंगके अनुसार किया जाता है । जहाँ एक ही अर्थके दो पद आते हैं; वहाँ दोनों पदोंका अलग-अलग अर्थ होता है और जहाँ एक पद आता है, वहाँ उसीके अन्तर्गत दोनों अर्थ आ जाते हैं । गीतामें कई जगह समानार्थक पद (एक ही अर्थके दो पद) आये हैं, जिनका अलग-अलग अर्थ और तात्पर्य इस प्रकार है–

(१) नानाशस्‍त्रप्रहरणाः’ अर्थात्शस्‍त्र’ औरप्रहरण’ (१ । ९)‒जिसको हाथमें रखकर प्रहार किया जाता है, वह ‘शस्‍त्र’ है; जैसे‒तलवार, भाला, छुरी, कटार, बघनखा आदि । जिसको हाथसे फेंककर प्रहार किया जाता है, वह प्रहरण’ (अस्‍त्र) है; जैसेबाण, चक्र, गोली आदि । शस्‍त्र भी कभी-कभी प्रहरण बन जाता है; जैसे‒तलवार, भाला आदिको फेंककर भी प्रहार किया जा सकता है । तात्पर्य है कि शस्‍त्र और प्रहरण‒दोनों शब्दोंका प्रयोग करके दुर्योधन अपनी सेनाकी महत्ता बता रहा है ।

(२) ‘नित्यस्य’ और अनाशिनः’ (२ । १८)‒जो निरन्तर निर्विकार रहे, उसको नित्य’ कहते हैं; और जिसका कभी नाश न हो, जो कभी मारा न जाय, उसको अनाशी’ कहते हैं । तात्पर्य है कि इस शरीरीमें किसी भी तरहसे कोई विकार पैदा नहीं किया जा सकता तथा इसका किसी भी तरहसे अभाव नहीं हो सकता ।

(३) नित्यः’ और शाश्‍वतः’ (२ । २०)‒जो निरन्तर रहता है, जिसमें कभी अन्तर नहीं पड़ता, जो कभी छिपता नहीं, वह नित्य’ है; और जो प्रकट होने तथा छिपनेपर भी ज्यों-का-त्यों रहता है, वह शाश्‍वत’ है । तात्पर्य है कि इस शरीरीमें जन्मना, बढ़ना आदि कोई भी विकार नहीं है ।

(४) नित्यः’ और सनातनः’ (२ । २४)‒जो सदा रहनेवाला है, जिसका आदि (उत्पत्ति) नहीं है, उसको नित्य’ कहते हैं; और जो नित्य-निरन्तर रहता हुआ ही कभी प्रकट हो जाता है, और कभी छिप जाता है, उसको सनातन’ कहते हैं । तात्पर्य है कि इस शरीरीमें देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदिका कोई विकार नहीं आता ।

(५) ‘स्थाणुः’ और अचलः’ (२ । २४)‒देही (आत्मा) ‘स्थाणुः’ अर्थात् हिलनेकी क्रियासे रहित है और अचलः’ अर्थात् स्थिर स्वभाववाला (आने-जानेकी क्रियासे रहित) है । तात्पर्य है कि अपने स्वरूपमें हलन-चलनरूपी क्रिया नहीं होती । क्रियामात्र प्रकृतिमें होती है । प्रकृतिसे अतीत तत्त्वमें कोई क्रिया नहीं है ।

(६) ‘विजानतः’ और ब्राह्मणस्य’ (२ । ४६)‒जो श्रोत्रिय अर्थात् शास्‍त्रोंका जानकार है, उसके लिये विजानतः’ पद आया है; और जो तत्त्वज्ञ अर्थात् तत्त्वका अनुभव करनेवाला है, उसके लिये ब्राह्मणस्य’ पद आया है । तात्पर्य है कि ऐसे तो श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ (तत्त्वज्ञ)‒दोनोंका होना आवश्यक है, पर वास्तवमें देखा जाय तो ब्रह्मनिष्ठ होना ही अत्यावश्यक है, श्रोत्रिय होना अत्यावश्यक नहीं है । कारण कि बोध होनेपर तो मुक्ति हो ही जाती है, पर केवल शास्‍त्रोंकी जानकारी होनेसे मुक्ति नहीं होती । दूसरी बात, ब्रह्मनिष्ठ पुरुष श्रोत्रिय न होनेपर भी उत्तम जिज्ञासुको बोध करा सकता है । हाँ, यह बात अलग है कि उत्तम जिज्ञासु न हो और उस जिज्ञासुमें शास्त्रीय प्रक्रियाका आग्रह हो तो उसको समझानेमें ब्रह्मनिष्ठ पुरुषको कठिनता पड़ती है, पर बोध करानेमें कठिनता नहीं पड़ती । परन्तु जो श्रोत्रिय है, वह शास्त्रीय प्रक्रियाके अनुसार जिज्ञासुको ठीक तरह समझा सकता है, पर उसको बोध नहीं करा सकता ।