Listen समानार्थानि
चोक्तानि पदानि यत्र यत्र वै ।
तात्पर्यं तत्र तत्रापि तेषां प्रोक्तं
प्रसंगतः ॥ पदों (शब्दों)-का अर्थ प्रसंगके अनुसार किया जाता है । जहाँ
एक ही अर्थके दो पद आते हैं; वहाँ दोनों पदोंका अलग-अलग अर्थ होता है और जहाँ एक पद आता है,
वहाँ उसीके अन्तर्गत दोनों अर्थ आ जाते हैं । गीतामें कई जगह
समानार्थक पद (एक ही अर्थके दो पद) आये हैं, जिनका अलग-अलग अर्थ और तात्पर्य इस प्रकार है– (१) ‘नानाशस्त्रप्रहरणाः’
अर्थात् ‘शस्त्र’ और ‘प्रहरण’ (१ । ९)‒जिसको हाथमें रखकर प्रहार किया जाता है, वह ‘शस्त्र’ है; जैसे‒तलवार, भाला, छुरी, कटार, बघनखा आदि । जिसको हाथसे फेंककर प्रहार किया जाता है,
वह ‘प्रहरण’ (अस्त्र) है; जैसे‒बाण, चक्र, गोली आदि । शस्त्र भी कभी-कभी प्रहरण बन जाता है;
जैसे‒तलवार, भाला आदिको फेंककर भी प्रहार किया जा सकता है । तात्पर्य है कि शस्त्र और प्रहरण‒दोनों शब्दोंका प्रयोग करके दुर्योधन अपनी सेनाकी महत्ता बता
रहा है । (२) ‘नित्यस्य’
और ‘अनाशिनः’
(२ । १८)‒जो निरन्तर निर्विकार
रहे,
उसको ‘नित्य’
कहते हैं; और जिसका कभी नाश न हो, जो कभी मारा न जाय, उसको ‘अनाशी’ कहते हैं । तात्पर्य है कि इस शरीरीमें किसी भी तरहसे कोई विकार
पैदा नहीं किया जा सकता तथा इसका किसी भी तरहसे अभाव नहीं हो सकता । (३) ‘नित्यः’ और ‘शाश्वतः’ (२ । २०)‒जो निरन्तर रहता है, जिसमें कभी अन्तर नहीं पड़ता, जो कभी छिपता नहीं,
वह ‘नित्य’
है; और जो प्रकट होने तथा छिपनेपर भी ज्यों-का-त्यों रहता है,
वह ‘शाश्वत’
है । तात्पर्य है कि इस शरीरीमें जन्मना,
बढ़ना आदि कोई भी विकार नहीं है । (४) ‘नित्यः’
और ‘सनातनः’
(२ । २४)‒जो सदा रहनेवाला है,
जिसका आदि (उत्पत्ति) नहीं है,
उसको ‘नित्य’ कहते हैं; और जो नित्य-निरन्तर रहता हुआ ही कभी प्रकट हो जाता है,
और कभी छिप जाता है, उसको ‘सनातन’ कहते हैं । तात्पर्य है कि इस शरीरीमें देश,
काल, वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदिका कोई विकार नहीं आता । (५) ‘स्थाणुः’
और ‘अचलः’
(२ । २४)‒देही (आत्मा) ‘स्थाणुः’ अर्थात् हिलनेकी क्रियासे रहित है और ‘अचलः’
अर्थात् स्थिर स्वभाववाला (आने-जानेकी क्रियासे रहित) है । तात्पर्य
है कि अपने स्वरूपमें हलन-चलनरूपी क्रिया नहीं होती । क्रियामात्र प्रकृतिमें होती
है । प्रकृतिसे अतीत तत्त्वमें कोई क्रिया नहीं है ।
(६) ‘विजानतः’
और ‘ब्राह्मणस्य’
(२ । ४६)‒जो श्रोत्रिय अर्थात्
शास्त्रोंका जानकार है, उसके लिये ‘विजानतः’
पद आया है; और जो तत्त्वज्ञ अर्थात् तत्त्वका अनुभव करनेवाला है,
उसके लिये ‘ब्राह्मणस्य’
पद आया है । तात्पर्य है कि ऐसे तो श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ
(तत्त्वज्ञ)‒दोनोंका होना आवश्यक है, पर वास्तवमें देखा जाय तो ब्रह्मनिष्ठ होना ही अत्यावश्यक है,
श्रोत्रिय होना अत्यावश्यक नहीं है । कारण कि बोध होनेपर तो
मुक्ति हो ही जाती है, पर केवल शास्त्रोंकी जानकारी होनेसे मुक्ति नहीं होती । दूसरी
बात,
ब्रह्मनिष्ठ पुरुष श्रोत्रिय न होनेपर भी उत्तम जिज्ञासुको बोध
करा सकता है । हाँ, यह बात अलग है कि उत्तम जिज्ञासु न हो और उस जिज्ञासुमें शास्त्रीय
प्रक्रियाका आग्रह हो तो उसको समझानेमें ब्रह्मनिष्ठ पुरुषको कठिनता पड़ती है,
पर बोध करानेमें कठिनता नहीं पड़ती । परन्तु जो श्रोत्रिय है,
वह शास्त्रीय प्रक्रियाके अनुसार जिज्ञासुको ठीक तरह समझा सकता
है,
पर उसको बोध नहीं करा सकता । |