Listen (६) ‘यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम
परमं मम’ (८ । २१) और ‘यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम’ (१५ ।
६)‒यद्यपि
‘यं प्राप्य’
और ‘यद्गत्वा’‒इन दोनों पदोंका अर्थ एक ही है;
क्योंकि ‘प्राप्य’ (‘आप्लृ व्याप्तौ’) का अर्थ भी प्राप्त होना होता है और ‘गत्वा’ (‘गम्लृ गतौ’) का अर्थ भी प्राप्त होना होता है, तथापि पहले वाक्यमें सगुण-निराकार
परमात्माके स्वरूपका वर्णन है, जिसका सम्पूर्ण प्राणियोंके नष्ट होनेपर भी नाश नहीं होता ।
उसकी सब जगह व्यापकता दीखती है, अपरोक्षता दीखती है । अतः उसको प्राप्त होनेकी बात कही गयी
है । परन्तु दूसरे वाक्यमें वैकुण्ठलोक, गोलोक, साकेतलोक आदि धामकी मुख्यताको लेकर वर्णन है,
जिसको सूर्य आदि भी प्रकाशित नहीं कर सकते । वह धाम दूर,
परोक्ष दीखता है । अतः वहाँ जानेकी बात कही गयी है । वास्तवमें
परमात्माका स्वरूप और परमात्माका धाम‒दोनों तत्त्वसे एक ही हैं । (७) ‘उदासीनवदासीनम्’ (९ । ९) और ‘उदासीनवदासीनः’ (१४ ।
२३)‒भगवान् प्राणियोंके स्वभावके
अनुसार सृष्टिकी रचना करते हैं; परन्तु वे उस सृष्टिरचना-रूप कर्मसे लिप्त नहीं होते,
प्रत्युत उदासीनकी तरह रहते हैं (९ । ९) । ऐसे ही गुणातीत महापुरुष
भी उदासीनकी तरह रहता है; क्योंकि वह गुणोंकी वृत्तियों आदिसे कभी किंचिन्मात्र भी विचलित
नहीं होता (१४ । २३) । (८) ‘अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च’ (१० ।
२०) और ‘सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन’ (१० ।
३२)‒दसवें अध्यायमें भगवान् चिन्तनके
लिये अपनी विभूतियोंका वर्णन कर रहे हैं । अतः पहले वाक्यका तात्पर्य है कि अगर साधककी
दृष्टि प्राणियोंकी तरफ चली जाय तो वहाँ यही चिन्तन करे कि सम्पूर्ण प्राणियोंके आदि,
मध्य और अन्तमें भगवान् ही हैं । दूसरे वाक्यका तात्पर्य है
कि अगर साधककी दृष्टि सर्गों (सृष्टियों)-की तरफ चली जाय तो वहाँ भी यही चिन्तन करे
कि अनन्त सृष्टियोंके आदि, मध्य और अन्तमें भगवान् ही रहते हैं । (९) ‘अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्’ (१३ । १६) और ‘अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम्’ (१८ । २०)‒पहले
वाक्यमें ज्ञेय तत्त्व अर्थात् वास्तविक बोधका और दूसरे वाक्यमें सात्त्विक ज्ञानका
वर्णन है । साधकके लिये सात्त्विक ज्ञान उपादेय है और राजस-तामस ज्ञान त्याज्य है ।
वास्तविक बोध सात्त्विक ज्ञानसे भी ऊँचा है अर्थात् वह सात्त्विक ज्ञानके द्वारा प्रापणीय
है । वह वास्तविक बोध ही सात्त्विक ज्ञान (विवेक)-के रूपमें प्रकट होता है । जैसे सिद्ध महापुरुष और ऊँचे साधकके लक्षणोंमें भेद करना कठिन
होता है,
ऐसे ही वास्तविक बोध और सात्त्विक ज्ञानमें भेद करना भी कठिन
है । फिर भी वास्तविक बोध करण-निरपेक्ष, गुणातीत होता है और सात्त्विक ज्ञान करण-सापेक्ष
होता है । (१०) ‘समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्’ (१३ । २७) और ‘सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते’ (१८ ।
२०)‒पहले वाक्यमें तो ज्ञानयोगीकी
दृष्टिका वर्णन है और दूसरे वाक्यमें सात्त्विक ज्ञानका वर्णन है । सब जगह परमात्माको
देखनेसे साधकको परमात्माकी प्राप्ति होती है और सात्त्विक ज्ञानमें स्थित रहनेसे साधक
गुणातीत हो जाता है । तात्पर्य है कि परिणाममें दोनों साधनोंसे परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति
हो जाती है[*] । नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
[*] इसी तरह ‘बलं’
‘भीष्माभिरक्षितम्’ और ‘बलं भीमाभिरक्षितम्’ (१ । १०);
‘प्रभवन्त्यहरागमे’ और ‘प्रभवत्यहरागमे’
(८ । १८-१९) आदि पुनरुक्त समानार्थक वाक्य भी गीतामें आये हैं,
पर इनमे कोई विशेष विचारणीय विषय न होनेसे इन्हें यहाँ नहीं
लिया गया है । |
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