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यथाक्रमं प्रोक्तं पश्चान्न स्यात्तथाक्रमम् । विपरीतक्रमस्यापि तात्पर्यं
कथ्यतेऽधुना ॥ पहले अध्यायके छब्बीसमें श्लोकमें
‘पितॄनथ पितामहान् । आचार्यान्....’ कहकर सबसे पहले पिता तथा पितामहोंका और तीसरे नम्बरमें आचार्योंका
नाम लिया गया है । फिर चौंतीसवें श्लोकमें ‘आचार्याः पितरः
पुत्रः....’ कहकर सबसे पहले आचार्योंका और दूसरे नम्बरमें पिता आदिका नाम लिया
गया है । यह विपरीत क्रम क्यों ? एक तो मोह-ममताका सम्बन्ध होता है और एक धर्मका सम्बन्ध होता
है । जहाँ मोह-ममताका सम्बन्ध होता है, वहाँ पिता आदि कुटुम्बी पहले याद आते हैं,
पीछे आचार्य आदि याद आते हैं; और जहाँ धर्मका सम्बन्ध होता है,
वहाँ आचार्य आदि पहले याद आते हैं,
पीछे पिता आदि कुटुम्बी याद आते हैं । जब अर्जुनमें कौटुम्बिक
मोह-ममताकी मुख्यता रहती है, तब उनकी दृष्टि सबसे पहले पिताकी तरफ जाती है;
और जब उनमें धर्मकी मुख्यता रहती है,
तब उनकी दृष्टि सबसे पहले आचार्यकी तरफ जाती है । (२) दूसरे अध्यायके चौथे श्लोकमें अर्जुन सबसे पहले पितामह
भीष्मजीका और बादमें आचार्य द्रोणका नाम लेते हैं‒‘कथं भीष्ममहं
संख्ये द्रोणं च’ । परन्तु ग्यारहवें अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें भगवान् सबसे
पहले द्रोणका और बादमें भीष्मजीका नाम लेते है‒‘द्रोणं च भीष्मं च’
। यह विपरीत क्रम क्यों ? भीष्मजीके साथ अर्जुनका कौटुम्बिक सम्बन्ध था । भीष्मजी बालब्रह्मचारी
थे । वे शास्त्र और धर्मके तत्त्वको जाननेवाले तथा लोकमात्रके आदरणीय थे । महाभारतमें
भगवान्ने भीष्मजीको शास्त्रज्ञानका सूर्य बताया है । इस प्रकार भीष्मजीके ज्यादा
आदरणीय,
पूजनीय होनेसे अर्जुन सबसे पहले उन्हींका नाम लेते हैं । आचार्य
द्रोण अर्जुनके विद्यागुरु थे । अर्जुनके मनमें गुरुजनोंको मारनेके पापका भय था । अतः
भगवान् सबसे पहले आचार्य द्रोणका नाम लेकर अर्जुनको यह बताना चाहते हैं कि जिन्होंने
तेरेको शस्त्र-अस्त्रकी विद्या सिखायी है, उनको क्षात्रधर्मकी दृष्टिसे मार भी दे, तो भी तेरेको पाप नहीं
लगेगा । कारण कि मेरे द्वारा मारे हुए इन द्रोण आदिको मारनेसे तेरे द्वारा अपने प्राप्त
कर्तव्यका पालन होगा । (३) कर्मयोग और भक्तियोगमें तो ‘निर्ममो
निरहंकारः’ (२ ।
७१; १२ । १३) कहकर पहले ममताका
और फिर अहंताका त्याग बताया; और ज्ञानयोगमें ‘अहंकारं......विमुच्य निर्ममः’ (१८ ।
५३) कहकर पहले अहंताका और फिर
ममताका त्याग बताया । यह विपरीत क्रम क्यों ?
कर्मयोगमें पदार्थोंकी, कर्मफलकी कामनाका त्याग मुख्य है । परन्तु
कामना छूटती है‒संसारसे निर्मम (ममतारहित) होनेसे । ममताका त्याग होनेपर अहंताका त्याग
स्वतः हो जाता है; क्योंकि अहंताके साथ भी ममता रहती है । भक्तियोगमें भक्त पदार्थ,
व्यक्ति आदि सबको भगवान्के अर्पण कर देता है, उनको भगवान्के ही मानता है; अतः उसकी किसी भी पदार्थ, व्यक्ति आदिमें ममता नहीं रहती । ममता न रहनेपर अहंता भी नहीं
रहती । अतः कर्मयोग और भक्तियोगमें पहले ममताका और फिर अहंताका त्याग बताया गया है
। ज्ञानयोगमें सत्-असत्, नित्य-अनित्यके विवेककी प्रधानता है । ‘मैं हूँ’‒इसमें ‘मैं’-पन (अहंता) प्रकृतिका कार्य है (१३ । ५) और ‘हूँ’ परमात्माका अंश है (१५ । ७) । ‘मैं’-पन अपने स्वरूपमें आरोपित है, वास्तवमें है नहीं । इस तरह विवेकके द्वारा अपने स्वरूपमें स्थित होनेसे अहंताका त्याग हो जाता है । अहंताका त्याग होनेपर ममताका त्याग स्वतः हो जाता है । अतः ज्ञानयोगमें पहले अहंताका और फिर ममताका त्याग बताया गया है । |
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