Listen ‘मत्त’
एतत्पदैः कृष्णो महिमानं स्वमब्रवीत् ।
तेषां प्रोक्तं च तात्पर्यं भावगाम्भीर्यपूर्वकम् ॥ सबके मूलमें परमात्मा ही हैं । परमात्माके सिवाय दूसरा कोई कारण है ही नहीं और
हो सकता ही नहीं । सृष्टिकी रचना, प्रलय आदिका कार्य करनेमें परमात्मा किसीकी भी मदद नहीं लेते;
क्योंकि वे सर्वदा-सर्वथा समर्थ और स्वतन्त्र हैं । वे सब कुछ
करनेमें अथवा न करनेमें तथा उलट-पलट करनेमें सर्वथा स्वतन्त्र हैं । संसारमें जो कुछ
प्रभाव देखनेमें आता है, वह सब परमात्माका ही है, वस्तु, व्यक्ति आदिका नहीं । रावणने हनुमान्जीसे पूछा‒‘हे बंदर ! तुम किसके दूत हो ? किसके बलसे तुमने वाटिका उजाड़ी है ?’ उत्तरमें हनुमान्जीने कहा‒‘जिनकी शक्तिसे तुमने सम्पूर्ण चर-अचरको जीत लिया है,
सबको अपने वशमें कर लिया है, मैं उन्हींका दूत हूँ ।’
हिरण्यकशिपुने प्रह्लादजीसे पूछा‒‘तू जिसका नाम लेता है, वह कौन है ?’ उत्तरमें प्रह्लाजीने कहा‒‘पिताजी ! जिनकी शक्तिसे आपने देवता,
दानव आदि सबपर विजय की है, मैं उन्हींका नाम लेता हूँ ।’ तात्पर्य है कि सबमें उस परमात्माकी
ही शक्ति है । उसके सिवाय दूसरा कोई ऐसा स्वतन्त्र शक्तिशाली है ही नहीं । इसी बातका
वर्णन भगवान्ने गीतामें ‘मत्तः’ पदसे किया है; जैसे‒ ‘मत्तः
परतरं नान्यत्किंचिदस्ति’ (७ । ७) । ‘मेरे सिवाय इस संसारका दूसरा कोई कारण है ही नहीं ।’ ‘मत्त एवेतितान्विद्धि’ (७ ।
१२) । ‘ये सात्त्विक, राजस और तामस भाव मेरेसे ही होते
हैं ।’ ‘भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः’ (१० ।
५) । ‘प्राणियोके बुद्धि, ज्ञान, असम्मोह आदि सभी भाव मेरेसे ही होते हैं
।’ ‘मत्तः सर्वं प्रवर्तते’ (१० ।
८) । ‘यह सब संसार मेरेसे ही चेष्टा कर रहा है ।’ ‘मत्तः
स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च’ (१५ । १५) । ‘स्मृति, ज्ञान आदि मेरेसे ही होते हैं ।’ तात्पर्य है कि संसारमें जो कुछ अच्छा-मन्दा,
सुख-दुःख आदि है, उन सबमें भगवान्का ही प्रभाव है,
शक्ति है । वे सभी भगवान्से ही होते हैं,
भगवान्में ही रहते हैं और भगवान्में ही लीन होते हैं ।
संसारमें दो बातें होती हैं‒करना और होना । मनुष्य
कर्म ‘करता’ है और उसका फल ‘होता’ है । ‘करना’
मनुष्यके हाथमें है और ‘होना’ भगवान्के
हाथमें है । अतः करनेमें सावधान और होनेमें प्रसन्न रहना चाहिये । नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! |
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