Listen पञ्चकृत्वः
पदं प्रोक्तं तत्त्वतः कृष्णगीतया । उदीरितं चतुः कृष्णे सकृत्प्रोक्तं तथाऽऽत्मनि ॥ चौथे अध्यायके नवें श्लोकमें
‘तत्त्वतः’
पद भगवान्के अवतारको तत्त्वसे जानने अर्थात् दृढ़तापूर्वक माननेके
अर्थमें आया है । इस पदकी व्याख्या चौथे अध्यायके ही छठे श्लोकमें की गयी है कि भगवान्
अजन्मा रहते हुए ही जन्म लेते हैं अर्थात् भगवान्का अजपना निरन्तर रहता है,
मिटता नहीं । वे अव्यय (अविनाशी)-स्वरूप रहते हुए ही अन्तर्धान
हो जाते हैं अर्थात् उनका अव्ययपना निरन्तर रहता है । वे प्राणिमात्रके महान् ईश्वर
(मालिक) होते हुए भी माता-पिताकी आज्ञाका पालन करते हैं,
उनके अधीन हो जाते हैं, ऐसा होनेपर भी उनका ईश्वरपना (आधिपत्य) मिटता नहीं । वे प्रकृतिको
अपने वशमें करके अपनी योगमायासे प्रकट होते हैं । उनका जन्म लेना जीवोंकी तरह कर्मोंके
अधीन नहीं होता । छठे अध्यायके इक्कीसवें श्लोकमें ‘तत्त्वतः’ पद अपने स्वरूपको ठीक-ठीक जाननेके अर्थमें आया है । जिसको अपने
स्वरूपका ठीक-ठीक बोध हो जाता है, वह फिर कभी भी अपनी स्थितिसे विचलित नहीं होता अर्थात् अनुकूल-से-अनुकूल
और प्रतिकूल-से-प्रतिकृल परिस्थिति आनेपर भी वह अपनी स्थितिसे विचलित नहीं होता (६
। २२) । कारण कि उसकी प्रकृतिकी, गुणोंकी परतन्त्रता मिट जाती है अर्थात् वह कभी किंचिन्मात्र
भी प्रकृतिके, गुणोंके परवश नहीं होता । सातवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें
‘तत्त्वतः’ पद भगवत्तत्त्वका ठीक-ठीक अनुभव करनेके अर्थमें आया है कि सब
कुछ भगवान् ही हैं । भगवान्के सिवाय दूसरे किसीकी भी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । इस
तरह जो तत्त्वसे भगवान्को जानता है, उसके लिये कुछ भी जानना बाकी नहीं रहता । दसवें अध्यायके सातवें श्लोकमें ‘तत्त्वतः’
पद भगवान्के प्रभाव, सामर्थ्य आदिको तथा उससे प्रकट होनेवाली विभूतियोंको जानने अर्थात्
अटलभावसे माननेके अर्थमें आया है । इस तरह जो अटलभावसे मान लेता है,
उसकी भगवान्में अटल भक्ति हो जाती है अर्थात् उसकी मान्यतामें
भगवान्के सिवाय दूसरी कोई स्वतन्त्र सत्ता, महत्ता, विलक्षणता स्वप्नमें भी नहीं रहती । अठारहवें अध्यायके पचपनवें श्लोकमें ‘तत्त्वतः’ पद दो बार आया है । पहली बार ‘तत्त्वतः’ पद परमात्माको तत्त्वसे जाननेके अर्थमें आया है कि वे ही परमात्मा अनेक रूपोंमें,
अनेक आकृतियोंमें, अनेक कार्य करनेके लिये बार-बार प्रकट होते हैं और साधकोंकी
अपनी-अपनी भावनाओंके अनुसार अनेक इष्टदेवोंके रूपमें कहे जाते हैं,
पर वास्तवमें वे परमात्मा एक ही हैं । दूसरी बार ‘तत्त्वतः’
पद परमात्मप्राप्तिके लिये आया है अर्थात् परमात्माको तत्त्वसे
जाननेके बाद भक्त तत्काल परमात्मामें प्रविष्ट हो जाता है,
परमात्मासे अपनी वास्तविक अभिन्नताका अनुभव कर लेता है । तात्पर्य है कि चौथे अध्यायके नवें श्लोकमें, सातवें अध्यायके
तीसरे श्लोकमें, दसवें अध्यायके सातवें श्लोकमें और अठारहवें अध्यायके पचपनवें श्लोकमें
आया हुआ ‘तत्त्वतः’
पद भगवत्तत्त्वको ठीक-ठीक जाननेके अर्थमें आया है[*] और छठे अध्यायके इक्कीसवें श्लोकमें आया हुआ ‘तत्त्वतः’ पद अपने स्वरूपको ठीक-ठीक जाननेके अर्थमें आया है । तत्त्वसे जाननेका अर्थ है‒जैसा है, वैसा
जान लेना । वह जानना दो तरहका होता है‒(१) अपने शुद्ध-बुद्ध स्वरूपका साक्षात्कार कर
लेना, ठीक-ठीक अनुभव कर लेना और (२) सबके मूलमें परमेश्वर है, उसी परमेश्वरसे सम्पूर्ण
सृष्टि उत्पन्न होती है‒ऐसा दृढ़तासे मान लेना । ज्ञानयोगमें अपने स्वरूपका साक्षात्कार करना ही तत्त्वसे जानना
है और भक्तियोगमें ‘सबके मूलमें भगवान् ही हैं’‒ऐसा दृढ़तासे मानना ही तत्त्वसे जानना है;
क्योंकि यथार्थमें सबके मूलमें भगवान् ही हैं । दृढ़तासे मानना
तत्त्वसे जाननेसे कम नहीं है अर्थात् तत्त्वसे जाननेका जो फल होता है, वही फल दृढ़तासे
माननेका होता है । भक्तलोग पहले ‘सबके मूलमें भगवान् ही हैं’
ऐसा दृढ़तासे मान लेते हैं । फिर वे ‘सब कुछ वासुदेव ही है’
ऐसा तत्त्वसे जान लेते हैं अर्थात् उनको ऐसा अनुभव हो जाता है
। सातवें अध्यायके दूसरे श्लोकमें इसी माननेको ‘ज्ञान’ नामसे और अनुभव करनेको ‘विज्ञान’ नामसे कहा है । ‘सब कुछ वासुदेव ही है’‒ऐसा अनुभव होनेपर भक्तको अपने स्वरूपका
अनुभव अपने-आप हो जाता है । इसी बातको भगवान्ने गीतामें ‘यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते’ (७ ।
२) ‘स सर्ववित्’
(१५ । १९) पदोंसे कहा है
। श्रीरामचरितमानसमें भगवान् रामने भी कहा है‒‘मम दरसन फल परम अनूपा । जीव पाव निज सहज सरूपा ॥
(३ । ३६ । ५) । नारायण ! नारायण ! नारायण !
नारायण !
[*] नवें अध्यायके चौबीसवें श्लोकमें तथा ग्यारहवें अध्यायके चौवनवें
श्लोकमें आया ‘तत्त्वेन’ पद भी भगवत्तत्त्वको क्रमशः ठीक-ठीक न जानने और जाननेके अर्थमें
आया है । |
Jan
02