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।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   पौष शुक्ल एकादशी , वि.सं.-२०७९, सोमवार

गीतामें आयेतत्त्वतः पदका तात्पर्य



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पञ्चकृत्वः  पदं  प्रोक्तं  तत्त्वतः  कृष्णगीतया ।

उदीरितं चतुः कृष्णे  सकृत्प्रोक्तं तथाऽऽत्मनि ॥

चौथे अध्यायके नवें श्‍लोकमें तत्त्वतः’ पद भगवान्‌के अवतारको तत्त्वसे जानने अर्थात् दृढ़तापूर्वक माननेके अर्थमें आया है । इस पदकी व्याख्या चौथे अध्यायके ही छठे श्‍लोकमें की गयी है कि भगवान्‌ अजन्मा रहते हुए ही जन्म लेते हैं अर्थात् भगवान्‌का अजपना निरन्तर रहता है, मिटता नहीं । वे अव्यय (अविनाशी)-स्वरूप रहते हुए ही अन्तर्धान हो जाते हैं अर्थात् उनका अव्ययपना निरन्तर रहता है । वे प्राणिमात्रके महान् ईश्‍वर (मालिक) होते हुए भी माता-पिताकी आज्ञाका पालन करते हैं, उनके अधीन हो जाते हैं, ऐसा होनेपर भी उनका ईश्‍वरपना (आधिपत्य) मिटता नहीं । वे प्रकृतिको अपने वशमें करके अपनी योगमायासे प्रकट होते हैं । उनका जन्म लेना जीवोंकी तरह कर्मोंके अधीन नहीं होता ।

छठे अध्यायके इक्‍कीसवें श्‍लोकमें तत्त्वतः पद अपने स्वरूपको ठीक-ठीक जाननेके अर्थमें आया है । जिसको अपने स्वरूपका ठीक-ठीक बोध हो जाता है, वह फिर कभी भी अपनी स्थितिसे विचलित नहीं होता अर्थात् अनुकूल-से-अनुकूल और प्रतिकूल-से-प्रतिकृल परिस्थिति आनेपर भी वह अपनी स्थितिसे विचलित नहीं होता (६ । २२) । कारण कि उसकी प्रकृतिकी, गुणोंकी परतन्त्रता मिट जाती है अर्थात् वह कभी किंचिन्मात्र भी प्रकृतिके, गुणोंके परवश नहीं होता ।

सातवें अध्यायके तीसरे श्‍लोकमें तत्त्वतः पद भगवत्तत्त्वका ठीक-ठीक अनुभव करनेके अर्थमें आया है कि सब कुछ भगवान्‌ ही हैं । भगवान्‌के सिवाय दूसरे किसीकी भी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । इस तरह जो तत्त्वसे भगवान्‌को जानता है, उसके लिये कुछ भी जानना बाकी नहीं रहता ।

दसवें अध्यायके सातवें श्‍लोकमें तत्त्वतः’ पद भगवान्‌के प्रभाव, सामर्थ्य आदिको तथा उससे प्रकट होनेवाली विभूतियोंको जानने अर्थात् अटलभावसे माननेके अर्थमें आया है । इस तरह जो अटलभावसे मान लेता है, उसकी भगवान्‌में अटल भक्ति हो जाती है अर्थात् उसकी मान्यतामें भगवान्‌के सिवाय दूसरी कोई स्वतन्त्र सत्ता, महत्ता, विलक्षणता स्वप्‍नमें भी नहीं रहती ।

अठारहवें अध्यायके पचपनवें श्‍लोकमें तत्त्वतः पद दो बार आया है । पहली बार तत्त्वतः पद परमात्माको तत्त्वसे जाननेके अर्थमें आया है कि वे ही परमात्मा अनेक रूपोंमें, अनेक आकृतियोंमें, अनेक कार्य करनेके लिये बार-बार प्रकट होते हैं और साधकोंकी अपनी-अपनी भावनाओंके अनुसार अनेक इष्टदेवोंके रूपमें कहे जाते हैं, पर वास्तवमें वे परमात्मा एक ही हैं । दूसरी बार तत्त्वतः’ पद परमात्मप्राप्‍तिके लिये आया है अर्थात् परमात्माको तत्त्वसे जाननेके बाद भक्त तत्काल परमात्मामें प्रविष्ट हो जाता है, परमात्मासे अपनी वास्तविक अभिन्‍नताका अनुभव कर लेता है ।

तात्पर्य है कि चौथे अध्यायके नवें श्‍लोकमें, सातवें अध्यायके तीसरे श्‍लोकमें, दसवें अध्यायके सातवें श्‍लोकमें और अठारहवें अध्यायके पचपनवें श्‍लोकमें आया हुआ तत्त्वतः’ पद भगवत्तत्त्वको ठीक-ठीक जाननेके अर्थमें आया है[*] और छठे अध्यायके इक्‍कीसवें श्‍लोकमें आया हुआ ‘तत्त्वतः पद अपने स्वरूपको ठीक-ठीक जाननेके अर्थमें आया है ।

तत्त्वसे जाननेका अर्थ है‒जैसा है, वैसा जान लेना । वह जानना दो तरहका होता है‒(१) अपने शुद्ध-बुद्ध स्वरूपका साक्षात्कार कर लेना, ठीक-ठीक अनुभव कर लेना और (२) सबके मूलमें परमेश्‍वर है, उसी परमेश्‍वरसे सम्पूर्ण सृष्टि उत्पन्‍न होती है‒ऐसा दृढ़तासे मान लेना । ज्ञानयोगमें अपने स्वरूपका साक्षात्कार करना ही तत्त्वसे जानना है और भक्तियोगमें ‘सबके मूलमें भगवान्‌ ही हैं’ऐसा दृढ़तासे मानना ही तत्त्वसे जानना है; क्योंकि यथार्थमें सबके मूलमें भगवान्‌ ही हैं । दृढ़तासे मानना तत्त्वसे जाननेसे कम नहीं है अर्थात् तत्त्वसे जाननेका जो फल होता है, वही फल दृढ़तासे माननेका होता है । भक्तलोग पहले सबके मूलमें भगवान्‌ ही हैं’ ऐसा दृढ़तासे मान लेते हैं । फिर वे सब कुछ वासुदेव ही है’ ऐसा तत्त्वसे जान लेते हैं अर्थात् उनको ऐसा अनुभव हो जाता है । सातवें अध्यायके दूसरे श्‍लोकमें इसी माननेको ज्ञान’ नामसे और अनुभव करनेको विज्ञान’ नामसे कहा है ।

सब कुछ वासुदेव ही है’‒ऐसा अनुभव होनेपर भक्तको अपने स्वरूपका अनुभव अपने-आप हो जाता है । इसी बातको भगवान्‌ने गीतामें यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते’ (७ । २) स सर्ववित् (१५ । १९) पदोंसे कहा है । श्रीरामचरितमानसमें भगवान्‌ रामने भी कहा है‒मम दरसन फल परम अनूपा । जीव पाव निज सहज सरूपा ॥ (३ । ३६ । ५) ।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !



[*] नवें अध्यायके चौबीसवें श्‍लोकमें तथा ग्यारहवें अध्यायके चौवनवें श्‍लोकमें आया तत्त्वेन’ पद भी भगवत्तत्त्वको क्रमशः ठीक-ठीक न जानने और जाननेके अर्थमें आया है ।