।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
    पौष शुक्ल द्वादशी , वि.सं.-२०७९, मंगलवार

गीतामें 'यत्' शब्दके

दो बार प्रयोगका तात्पर्य



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द्विर्यच्छब्दप्रयोगस्तु  गीतायां यत्र कुत्रचित् ।

यत्तदोर्नित्यसम्बन्धात्तात्पर्यमिह     कथ्यते ॥

‘यत् यदाचरति श्रेष्ठः....’ (३ । २१)‒सामान्य जनताके सामने श्रेष्ठ पुरुषोंके आचरणोंका ही असर पड़ता है । कारण कि कौन-सा व्यक्ति किस समय, किस भावसे, कौन-सी क्रिया कर रहा है‒इस तरफ जनताकी दृष्टि प्रायः जाती ही नहीं । इसीलिये भगवान्‌ने अपना उदाहरण दिया है कि त्रिलोकीमें मेरे लिये कोई कर्तव्य नहीं है, तो भी मैं कर्तव्य-कर्म करता हूँ’ (३ । २२) । ज्ञानीको भी भगवान्‌ने लोकसंग्रहके लिये कर्तव्य-कर्म करनेकी आज्ञा दी है (३ । २५) । अतः श्रेष्ठ पुरुष क्रियारूपसे जो-जो आचरण करते हैं, उन्हींका सामान्य जनतापर असर पड़ता है । दो नम्बरमें उनके वचनोंका असर पड़ता है । वह असर भी उन्हीं वचनोंका पड़ता है, जिन वचनोंके अनुसार वे आचरण करते हैं । जिन वचनोंके अनुसार उनका आचरण नहीं होता, उन वचनोंका इतना असर नहीं पड़ता; क्योंकि उन वचनोंमें शक्‍ति नहीं होती । परन्तु साधक गुरु, संत-महात्माके वचनोंकी तरह केवल उनके वचनोंसे भी लाभ ले सकता है ।

(२) यदा यदा हि धर्मस्य....’ (४ । ७)‒भगवान्‌ किसी एक युगमें एक या दो बार अवतार लेते होंगे अथवा किसी युगमें अवतार नहीं भी लेते होंगे‒यह कोई नियम नहीं है । भगवान्‌के अवतार लेनेमें युग, वर्ष, महीना, दिन आदि कोई कारण नहीं है । जब-जब धर्मकी हानि और अधर्मका अभ्युथान होता है, तब-तब भगवान्‌ प्रकट होते हैं अर्थात् जिस युगमें लोगोंका जैसा बर्ताव होना चाहिये, वैसा न होकर उससे ज्यादा गिर जाता है और अधर्म ज्यादा बढ़ जाता है, तब भगवान्‌ अवतार लेते हैं । धर्मकी हानि और अधर्मका बढ़ना‒इसका माप-तौल मनुष्य नहीं कर सकता कि अब तो धर्मका बहुत ह्रास हो गया, अब अधर्म बहुत बढ़ गया तो अब भगवान्‌का अवतार होना ही चाहिये । इस विषयको पूरा तो भगवान्‌ ही जानते है । हाँ, ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि जिस युगमें धर्मका जैसा बर्ताव होना चाहिये, वैसा न होकर उससे भी अधिक गिर जाता है, तब भगवान्‌ अवतार लेते हैं । त्रेतायुगमें राक्षसोंने ऋषियोंको मारकर हड्डियोंके ढेर लगा दिये थे, पर वर्तमान कलियुगमें साधु-ब्राह्मण जीते-जागते स्वतंत्रतासे घूमते-फिरते हैं और अपने धर्मका प्रचार करते हैं । अगर आफत आती भी है तो बहुत थोड़ोंपर आती है । कलियुगमें तो त्रेतायुगकी अपेक्षा बहुत अधिक पतन होना चाहिये पर उतना पतन अभी नहीं दीखता ।

(३) यतो यतो निश्‍चरति....’ (६ । २६) यहाँ ‘यतः यतः पदोंमें केवल ‘जहाँ-जहाँसे’यह पंचमीका अर्थ ही नहीं है, प्रत्युत यह अर्थ है कि मन जब-जब, जहाँ-जहाँ, जिस-जिस प्रयोजनके लिये और जैसे-जैसे चला जाय, तब-तब मनको वहाँसे हटाकर परमात्मामें लगाना चाहिये । यहाँ यह बात साधककी विशेष सावधानी, सजगताके लिये कही गयी है; क्योंकि साधककी सावधानी ही सिद्धिमें कारण है ।