Listen द्विर्यच्छब्दप्रयोगस्तु गीतायां यत्र कुत्रचित् ।
यत्तदोर्नित्यसम्बन्धात्तात्पर्यमिह कथ्यते
॥ ‘यत् यदाचरति श्रेष्ठः....’ (३ ।
२१)‒सामान्य जनताके सामने श्रेष्ठ
पुरुषोंके आचरणोंका ही असर पड़ता है । कारण कि कौन-सा व्यक्ति किस समय, किस भावसे,
कौन-सी क्रिया कर रहा है‒इस तरफ जनताकी दृष्टि प्रायः जाती ही
नहीं । इसीलिये भगवान्ने अपना उदाहरण दिया है कि ‘त्रिलोकीमें मेरे लिये कोई कर्तव्य नहीं है,
तो भी मैं कर्तव्य-कर्म करता हूँ’ (३ । २२) । ज्ञानीको भी भगवान्ने
लोकसंग्रहके लिये कर्तव्य-कर्म करनेकी आज्ञा दी है (३ । २५) । अतः श्रेष्ठ पुरुष क्रियारूपसे
जो-जो आचरण करते हैं, उन्हींका सामान्य जनतापर असर पड़ता है । दो नम्बरमें उनके वचनोंका
असर पड़ता है । वह असर भी उन्हीं वचनोंका पड़ता है, जिन वचनोंके अनुसार वे आचरण करते हैं । जिन वचनोंके अनुसार उनका
आचरण नहीं होता, उन वचनोंका इतना असर नहीं पड़ता; क्योंकि उन वचनोंमें शक्ति नहीं होती । परन्तु साधक गुरु,
संत-महात्माके वचनोंकी तरह केवल उनके वचनोंसे भी लाभ ले सकता
है । (२) ‘यदा यदा हि धर्मस्य....’ (४ ।
७)‒भगवान् किसी एक युगमें एक
या दो बार अवतार लेते होंगे अथवा किसी युगमें अवतार नहीं भी लेते होंगे‒यह कोई नियम
नहीं है । भगवान्के अवतार लेनेमें युग, वर्ष, महीना, दिन आदि कोई कारण नहीं है । जब-जब धर्मकी हानि
और अधर्मका अभ्युथान होता है, तब-तब भगवान् प्रकट होते हैं अर्थात् जिस युगमें लोगोंका जैसा
बर्ताव होना चाहिये, वैसा न होकर उससे ज्यादा गिर जाता है और अधर्म ज्यादा बढ़ जाता
है, तब भगवान् अवतार लेते हैं । धर्मकी हानि और अधर्मका बढ़ना‒इसका माप-तौल मनुष्य
नहीं कर सकता कि अब तो धर्मका बहुत ह्रास हो गया, अब अधर्म बहुत बढ़ गया तो अब भगवान्का
अवतार होना ही चाहिये । इस विषयको पूरा तो भगवान् ही जानते है । हाँ,
ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि जिस युगमें धर्मका जैसा बर्ताव
होना चाहिये, वैसा न होकर उससे भी अधिक गिर जाता है, तब भगवान् अवतार लेते हैं । त्रेतायुगमें
राक्षसोंने ऋषियोंको मारकर हड्डियोंके ढेर लगा दिये थे,
पर वर्तमान कलियुगमें साधु-ब्राह्मण जीते-जागते स्वतंत्रतासे
घूमते-फिरते हैं और अपने धर्मका प्रचार करते हैं । अगर आफत आती भी है तो बहुत थोड़ोंपर
आती है । कलियुगमें तो त्रेतायुगकी अपेक्षा बहुत अधिक पतन होना चाहिये पर उतना पतन
अभी नहीं दीखता ।
(३) ‘यतो यतो निश्चरति....’ (६ ।
२६) यहाँ ‘यतः यतः’ पदोंमें केवल ‘जहाँ-जहाँसे’‒यह पंचमीका अर्थ ही नहीं है, प्रत्युत यह अर्थ है कि मन जब-जब,
जहाँ-जहाँ, जिस-जिस प्रयोजनके लिये और जैसे-जैसे चला जाय,
तब-तब मनको वहाँसे हटाकर परमात्मामें लगाना चाहिये । यहाँ यह
बात साधककी विशेष सावधानी, सजगताके लिये कही गयी है; क्योंकि साधककी सावधानी ही सिद्धिमें
कारण है । |