Listen (४)
‘यो यो यां यां तनुं भक्तः....’ (७
। २१) यहाँ ‘यः यः’
पदोंसे उपासककी और ‘यां यां’ पदोंसे उपास्यकी बात बतायी
गयी है कि जो-जो उपासक जिस-जिस उपास्यका श्रद्धापूर्वक पूजन करना चाहता है,
उस-उस साधककी श्रद्धाको भगवान् उस-उस उपास्यके प्रति दृढ़ करते हैं ।
ऐसा कहनेमें भगवान्का यह तात्पर्य मालूम देता है कि मैं सभी उपासकोंको केवल अपनी तरफ
ही नहीं खींचता हूँ, अपना पक्ष ही नहीं रखता हूँ, प्रत्युत मैं यह देखता हूँ कि उपासककी
रुचि, श्रद्धा किस उपास्यमें है । अन्तर्यामी और सर्वसमर्थ होते
हुए भी मैं उस उपासकको वहाँसे विचलित न करके, उसकी श्रद्धाको
वहाँसे न हटाकर उसी उपास्यमें उसकी श्रद्धाको दृढ़ कर देता हूँ । भगवान्की इस अत्यन्त
कृपालुताको समझकर उपासकका आकर्षण, खिंचाव, श्रद्धा, प्रेम केवल भगवान्में ही होना चाहिये;
क्योंकि जीवका कल्याण, हित वास्तवमें भगवान्की तरफ चलनेमें ही है । उसको
विचार करना चाहिये कि जब भगवान् कृपावश होकर मेरी ही रुचि रखते हैं, तो फिर मुझे भी भगवान्की ही रुचि रखनी चाहिये, क्योंकि
भगवान्के समान दयालु, हितैषी और कौन होगा तथा कौन हो सकता है
? तात्पर्य है कि भगवान्के इस निष्पक्ष-व्यवहारसे उनकी
निर्लिप्तता, कृपालुता और प्राणिमात्रके प्रति हितैषिताका ही
ज्ञान होता है । उपर्युक्त
पदोंसे एक और बात मालूम होती है कि उपासनामें उपासककी रुचि,
श्रद्धा ही मुख्य है । वह किसीकी भी उपासना कर सकता है; इसमें वह स्वतन्त्र है । (५)
‘यं यं वापि स्मरन्भावं....’ (८ । ६)‒भगवान्ने
जीवको सम्पूर्ण जन्मोंका अन्त करनेवाला यह अन्तिम मनुष्य-शरीर देकर यह स्वतन्त्रता
दी है कि वह जीवनभर साधन करके, मेरी शरण होकर
आगे होनेवाले सम्पूर्ण जन्मोंका अन्त कर ले, सम्पूर्ण बन्धनोंसे
मुक्त हो जाय । अगर यह चेत जीवनभर नहीं भी हुआ, तो भी कोई बात
नहीं, वह अन्तकालमें भी मेरा स्मरण कर ले, तो मेरेको प्राप्त हो जायगा ! कारण कि जीव अन्तकालमें जिस-जिस भावका स्मरण
करता हुआ शरीर छोड़ता है, वह उस स्मरणके अनुसार उस-उस भाव अर्थात्
योनि आदिको ही प्राप्त होता है । यह भगवान्की दयालुता ही
है कि जिस अन्तकालीन चिन्तनसे अन्य (कुत्ते आदिकी) योनि आदिकी प्राप्ति हो जाय, उसी अन्तकालीन चिन्तनसे (भगवान्का चिन्तन करनेसे)
भगवान्की प्राप्ति हो जाय !
(६)
‘यत् यत् विभूतिमत्सत्त्वं....’ (१० । ४१)‒सब
साधकोंके भाव, रुचि, श्रद्धा,
स्वभाव आदि भिन्न-भिन्न होते हैं; अतः किसीको
किसीमें महत्ता दीखती है तो किसीको किसीमें महत्ता दीखती है । इसलिये भगवान्ने विभूतिके
रूपमें अपने चिन्तनमें साधकोंको स्वतन्त्रता दी है कि साधकको जिस-किसीमें, जहाँ-जहाँ, जब-जब कोई महत्ता दीखती है, विशेषता दीखती
है, उस महत्ता, विशेषताको उसकी न समझकर
मेरी ही समझे । तात्पर्य है कि साधककी दृष्टि मेरी तरफ ही
जानी चाहिये, वस्तु, व्यक्ति
आदिकी तरफ नहीं । नारायण ! नारायण ! नारायण !
नारायण ! |