।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
    पौष शुक्ल चतुर्दशी , वि.सं.-२०७९, गुरुवार

गीतामें आये कृत्वा’, ‘ज्ञात्वा’

और ‘मत्वा’ पदोंका तात्पर्य



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त्रिषु    योगेषु   गीतायां   मुख्यत्वेन   पदत्रयम् ।

ज्ञाने ज्ञात्वा व्रजेद् भक्तौ मत्वा कृत्वा च कर्मणि ॥[*]

गीतामें ‘कृत्वा’ (करना), ज्ञात्वा’ (जानना) और ‘मत्वा’ (मानना)‒ये तीनों पद मुख्यतासे आये हैं । कर्मयोगमें निष्कामभावसे कर्म करना मुख्य है । अतः गीतामें जहाँ-जहाँ कर्मयोगका प्रकरण आया है, वहाँ मुख्यरूपसे कर्तव्य-कर्म करनेकी बात आयी है, जैसे‒कर्म करते हुए भी नहीं बँधता’ (४ । २२) आदि । इसी तरह ‘कुरु’, करोति’, ‘कुर्वन्’ आदि पद भी करनेके’ अर्थमें आये हैं ।

यद्यपि कर्मयोगमें ‘करना’ मुख्य है तथापि उसमें ‘ज्ञात्वा’ अर्थात् जाननेकी बात भी आती है । कारण कि केवल कर्म करनेसे शरीर-संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद नहीं होता । सम्बन्ध-विच्छेद तभी होता है, जब कर्म करनेके साथ-साथ निष्कामभाव और कर्मोंके तत्त्वको जानना भी हो । अतः गीतामें कर्मोंको तत्त्वसे जाननेकी बात आती है, जैसे‒इस तरह कर्मोंके तत्त्वको जानकर मुमुक्षुओंने कर्म किये हैं’ (४ । १५); ‘जिसको जानकर तू अशुभ संसारसे मुक्‍त हो जायगा’ (४ । १६); इस तरह सम्पूर्ण यज्ञोंको कर्मजन्य जानकर तू अशुभ संसारसे मुक्‍त हो जायगा’ (४ । ३२) ।

ज्ञानयोगमें अपने स्वरूपको जानना मुख्य है । अतः गीतामें जहाँ-जहाँ ज्ञानयोगका प्रकरण आया है, वहाँ मुख्यरूपसे जाननेकी बात आयी है; जैसे‒‘जिसको जानकर फिर मोह नहीं होता’ (४ । ३५) आदि । ज्ञानयोगके प्रकरणमें जहाँ ‘मत्वा’ अर्थात् माननेकी बात आयी है, वह भी वास्तवमें जानने’ के अर्थमें ही आयी है; जैसे‒गुण और कर्मके विभागको जाननेवाला मनुष्य गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं, ऐसा मानकर आसक्त नहीं होता’ (३ । २८) । इसी तरह ‘वेत्ति’, पश्यति’ आदि पद भी ‘जानने’ के अर्थमें आये हैं ।

भक्तियोगमें भगवान्‌को मानना मुख्य है । अतः गीतामें जहाँ-जहाँ भक्तियोगका प्रकरण आया हैं, वहाँ मुख्यरूपसे माननेकी बात आयी है; जैसे‒सबके आदिमें भगवान्‌ हैं (९ । १३), तो मेरे आदिमें भी भगवान्‌ हैं । सबमें भगवान्‌ हैं (६ । ३०; १० । २०; १५ । १५), तो मेरेमें भी भगवान्‌ हैं । सब भगवान्‌में हैं (७ । ७; ८ । २२), तो मैं भी भगवान्‌में हूँ । सबके मालिक भगवान्‌ हैं (४ । ६; ५ । २९; ९ । ११, २४), तो मेरे मालिक भी भगवान्‌ हैं । सब कुछ भगवान्‌से ही होता है (७ । १२; १० । ५ , ८), तो मेरे द्वारा भी जो कुछ होता है, वह भगवान्‌की सत्ता-स्फूर्तिसे ही होता है । सबके विधायक भगवान्‌ हैं (७ । २२; १८ । ६१), तो मेरे विधायक भी भगवान्‌ हैं । भगवान्‌ प्राणिमात्रके सुहृद् हैं (५ । २९), तो मेरे भी सुहृद् भगवान्‌ हैं । भगवान्‌ भक्तोंका योगक्षेम वहन करते हैं (९ । २२), तो मेरा योगक्षेम भी भगवान्‌ करेंगे ही; आदि-आदि । इन सब पदोंमें मानने’ की ही मुख्यता है ।

भक्तियोगके प्रकरणमें जहाँ ‘ज्ञात्वा’ अर्थात् जाननेकी बात आयी है, वह भी वास्तवमें मानने’ के अर्थमें ही आयी है; जैसे‒भक्त मुझे सब यज्ञों और तपोंका भोक्ता, सम्पूर्ण लोकोंका महान् ईश्‍वर तथा सम्पूर्ण प्राणियोंका सुहृद् जानकर शान्तिको प्राप्‍त हो जाता है’ (५ । २९); ‘महात्मालोग मेरेको सम्पूर्ण प्राणियोंका आदि और अविनाशी जानकर मेरा भजन करते हैं’ (९ । १३) । इसी तरह वेत्ति’, ‘जानाति’ आदि पद भी ‘मानने’ के अर्थमें आये हैं (१० । ७; १५ । १९ आदि) ।

भक्तोंकी यह जो दृढ़तापूर्वक मान्यता है, यह तत्त्वज्ञानसे कम नहीं है, प्रत्युत कुछ अंशमें तत्त्वज्ञानसे भी श्रेष्ठ है । कारण कि तत्त्वज्ञान होनेपर भी साधकमें सूक्ष्म अहंभाव रह सकता है, पर दृढ़ मान्यतामें अहंभाव रह ही नहीं सकता । भक्तोंकी इसी दृढ़ मान्यताको ‘भगवन्‍निष्ठा’ कहते हैं । जैसे भगवान्‌ गुणोंसे परे है (७ । १३), ऐसे ही यह भगवन्‍निष्ठा भी गुणातीत है । जैसे ज्ञानीको सब जगह परमात्मतत्त्वका अनुभव होता है, ऐसे ही भक्तोंकी सब जगह भगवान्‌ ही है’,यह मान्यता केवल मान्यता ही नहीं रहती, प्रत्युत ऐसा प्रत्यक्ष दीखने लग जाता है ।

ज्ञानमार्गमें जानने’ की मुख्यता होनेसे ज्ञानयोगी साधक जड़तासे अलग होता है; अतः उसका शरीर चिन्मय नहीं होता । परन्तु भक्तमें भगवान्‌की मान्यता, भगवद्भाव इतना उतर आता है कि उसके शरीरमें जड़ताका अभाव हो सकता है और शरीर चिन्मय हो सकता है । शरीर चिन्मय होनेके कारण ही भक्त प्रह्लादके शरीरको अग्‍नि जला नहीं सकी, शस्‍त्र काट नहीं सके, जहर मार नहीं सका; मीराबाईका शरीर भगवान्‌के विग्रहमें समा गया; तुकाराम सदेह वैकुण्ठ चले गये ।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !



[*] कर्मणि’ इति कर्मयोगे ।