Listen त्रिषु योगेषु गीतायां मुख्यत्वेन
पदत्रयम् । ज्ञाने ज्ञात्वा व्रजेद् भक्तौ मत्वा कृत्वा च कर्मणि ॥[*] गीतामें
‘कृत्वा’ (करना),
‘ज्ञात्वा’ (जानना) और ‘मत्वा’ (मानना)‒ये
तीनों पद मुख्यतासे आये हैं । कर्मयोगमें निष्कामभावसे कर्म करना मुख्य है । अतः गीतामें
जहाँ-जहाँ कर्मयोगका प्रकरण आया है, वहाँ मुख्यरूपसे कर्तव्य-कर्म करनेकी बात आयी है,
जैसे‒‘कर्म करते हुए भी नहीं बँधता’ (४ । २२) आदि । इसी तरह ‘कुरु’, ‘करोति’, ‘कुर्वन्’ आदि
पद भी ‘करनेके’ अर्थमें आये हैं । यद्यपि
कर्मयोगमें ‘करना’ मुख्य है तथापि उसमें ‘ज्ञात्वा’
अर्थात् जाननेकी बात भी आती है । कारण कि केवल कर्म करनेसे शरीर-संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद
नहीं होता । सम्बन्ध-विच्छेद तभी होता है, जब
कर्म करनेके साथ-साथ निष्कामभाव और कर्मोंके तत्त्वको जानना भी हो । अतः गीतामें कर्मोंको
तत्त्वसे जाननेकी बात आती है, जैसे‒‘इस तरह कर्मोंके तत्त्वको
जानकर मुमुक्षुओंने कर्म किये हैं’ (४ । १५); ‘जिसको जानकर तू
अशुभ संसारसे मुक्त हो जायगा’ (४ । १६); ‘इस तरह सम्पूर्ण यज्ञोंको कर्मजन्य जानकर तू अशुभ संसारसे मुक्त हो जायगा’
(४ । ३२) । ज्ञानयोगमें
अपने स्वरूपको जानना मुख्य है । अतः गीतामें जहाँ-जहाँ ज्ञानयोगका प्रकरण आया है,
वहाँ मुख्यरूपसे जाननेकी बात आयी है; जैसे‒‘जिसको
जानकर फिर मोह नहीं होता’ (४ । ३५) आदि । ज्ञानयोगके प्रकरणमें
जहाँ ‘मत्वा’ अर्थात् माननेकी बात आयी है, वह भी वास्तवमें ‘जानने’ के अर्थमें ही आयी है;
जैसे‒‘गुण और कर्मके विभागको जाननेवाला मनुष्य
गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं, ऐसा मानकर आसक्त नहीं होता’
(३ । २८) । इसी तरह ‘वेत्ति’, ‘पश्यति’ आदि पद भी ‘जानने’
के अर्थमें आये हैं । भक्तियोगमें
भगवान्को मानना मुख्य है । अतः गीतामें जहाँ-जहाँ भक्तियोगका प्रकरण आया हैं,
वहाँ मुख्यरूपसे माननेकी बात आयी है; जैसे‒सबके
आदिमें भगवान् हैं (९ । १३), तो मेरे आदिमें भी भगवान् हैं
। सबमें भगवान् हैं (६ । ३०; १० । २०; १५ । १५), तो मेरेमें
भी भगवान् हैं । सब भगवान्में हैं (७ । ७; ८ । २२), तो मैं
भी भगवान्में हूँ । सबके मालिक भगवान् हैं (४ । ६; ५ । २९; ९ । ११, २४), तो मेरे मालिक
भी भगवान् हैं । सब कुछ भगवान्से ही होता है (७ । १२; १० ।
५ , ८), तो मेरे द्वारा भी जो कुछ होता है, वह भगवान्की सत्ता-स्फूर्तिसे
ही होता है । सबके विधायक भगवान् हैं (७ । २२; १८ । ६१), तो
मेरे विधायक भी भगवान् हैं । भगवान् प्राणिमात्रके सुहृद् हैं (५ । २९), तो मेरे
भी सुहृद् भगवान् हैं । भगवान् भक्तोंका योगक्षेम वहन करते हैं (९ । २२), तो मेरा
योगक्षेम भी भगवान् करेंगे ही; आदि-आदि । इन सब पदोंमें ‘मानने’ की ही मुख्यता है । भक्तियोगके
प्रकरणमें जहाँ ‘ज्ञात्वा’ अर्थात् जाननेकी बात आयी
है,
वह भी वास्तवमें ‘मानने’ के अर्थमें ही आयी है;
जैसे‒‘भक्त मुझे सब यज्ञों और तपोंका भोक्ता,
सम्पूर्ण लोकोंका महान् ईश्वर तथा सम्पूर्ण प्राणियोंका सुहृद् जानकर
शान्तिको प्राप्त हो जाता है’ (५ । २९); ‘महात्मालोग मेरेको सम्पूर्ण प्राणियोंका आदि और अविनाशी जानकर मेरा भजन करते
हैं’ (९ । १३) । इसी तरह ‘वेत्ति’, ‘जानाति’ आदि पद भी ‘मानने’ के अर्थमें
आये हैं (१० । ७; १५ । १९ आदि) । भक्तोंकी
यह जो दृढ़तापूर्वक मान्यता है, यह तत्त्वज्ञानसे
कम नहीं है, प्रत्युत कुछ अंशमें तत्त्वज्ञानसे भी श्रेष्ठ है
। कारण कि तत्त्वज्ञान होनेपर भी साधकमें सूक्ष्म अहंभाव रह सकता है, पर दृढ़ मान्यतामें अहंभाव रह ही नहीं सकता । भक्तोंकी
इसी दृढ़ मान्यताको ‘भगवन्निष्ठा’ कहते हैं । जैसे भगवान् गुणोंसे परे है (७ । १३),
ऐसे ही यह भगवन्निष्ठा भी गुणातीत है । जैसे ज्ञानीको सब जगह परमात्मतत्त्वका अनुभव
होता है, ऐसे ही भक्तोंकी ‘सब जगह भगवान् ही है’,‒यह मान्यता केवल मान्यता ही नहीं
रहती, प्रत्युत ऐसा प्रत्यक्ष दीखने लग जाता है । ज्ञानमार्गमें
‘जानने’ की मुख्यता होनेसे ज्ञानयोगी साधक जड़तासे अलग होता है; अतः उसका शरीर चिन्मय नहीं होता । परन्तु भक्तमें
भगवान्की मान्यता, भगवद्भाव
इतना उतर आता है कि उसके शरीरमें जड़ताका अभाव हो सकता है और शरीर चिन्मय हो सकता है
। शरीर चिन्मय होनेके कारण ही भक्त प्रह्लादके
शरीरको अग्नि जला नहीं सकी, शस्त्र काट नहीं
सके, जहर मार नहीं सका; मीराबाईका शरीर
भगवान्के विग्रहमें समा गया; तुकाराम सदेह वैकुण्ठ चले गये । नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
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