।। श्रीहरिः ।।

 


  आजकी शुभ तिथि–
         पौष पूर्णिमा , वि.सं.-२०७९, शुक्रवार

गीतामें ‘तत्’ और अस्मत्’

पदसे भगवान्‌का वर्णन



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अस्मच्छब्देन गीतायां श्रीकृष्णो वर्ण्यते स्वयम् ।

तच्छ्ब्देनापि   तस्यैव   वर्णनं   वर्तते   विभोः ॥

गीतामें यह अलौकिकता है कि भगवान्‌ने एक ही तत्त्वका वर्णन कई रीतियोंसे किया है । जैसे, भगवान्‌ने तत्’ पदसे भी अपना वर्णन किया है और ‘अस्मत्’ पदसे भी अपना वर्णन किया है । कारण कि साधकोंकी रुचि, विश्‍वास, योग्यता आदि अलग-अलग होते हैं; अतः किसीकी रुचि तत्’-पदवाची परमात्माकी प्राप्‍तिकी होती है और किसीकी रुचि ‘अस्मत्’-पदवाची परमात्माकी प्राप्‍तिकी होती है ।

जिससे अनादिकालसे यह सृष्टि फैली हुई है, उसके शरण हो जाना चाहिये’ तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी’ (१५ । ४); जिस परमात्मासे सम्पूर्ण संसार पैदा हुआ है और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्‍त है, उस परमात्माका अपने कर्मोंसे पूजन करना चाहिये’ यतः प्रवृत्तिः......स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य’ (१८ । ४६)‒ऐसा कहकर तत्’ पदसे और मैं संसारका मूल कारण हूँ और मेरेसे ही सारा संसार चेष्टा कर रहा है, अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्व प्रवर्तते’ ( १० । ८)‒ऐसा कहकर अस्मत्’ पदसे भगवान्‌ने अपनेसे ही सम्पूर्ण संसारकी उत्पत्ति बतायी है तथा अपनेको ही संसारमें व्याप्‍त बताया है ।

तू अनन्यभावसे उस परमात्माकी शरणमें चला जा’ तमेव शरणं गच्छ’ (१८ । ६२)‒ऐसा कहकर ‘तत्‌’ पदसे और ‘तू अनन्यभावसे मेरी शरणमें आ जा’ मामेकं शरणं व्रज’ (१८ । ६६)‒ऐसा कहकर ‘अस्मत्’ पदसे भगवान्‌ने अपने शरण होनेकी आज्ञा दी है ।

जिसके अन्तर्गत सम्पूर्ण प्राणी हैं और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्‍त है, वह परमात्मा अनन्यभक्तिसे ही प्राप्‍त हो सकता है’ पुरुषः स परः......सर्वमिदं ततम्’ (८ । २२)‒ऐसा कहकर तत्’ पदसे और ‘अव्यक्तमूर्ति’ मेरेसे ही यह सम्पूर्ण संसार व्याप्‍त है और सम्पूर्ण प्राणी मेरेमें स्थित हैं’ मया ततमिदं....मत्स्थानि सर्वभूतानि’ (९ । ४)‒ऐसा कहकर ‘अस्मत्’ पदसे भगवान्‌ने अपनेमें सम्पूर्ण प्राणियोंको स्थित एवं अपनेको ही सम्पूर्ण संसारमें व्याप्‍त बताया है ।

जो ज्ञेय-तत्त्व है, उसका मैं वर्णन करूँगा, जिसको जाननेसे अमरताकी प्राप्‍ति हो जाती है’ ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्‍नुते’ (१३ । १२)‒ऐसा कहकर तत्’ पदसे और ‘सम्पूर्ण वेदोंके द्वारा जाननेयोग्य मैं ही हूँ’ वेदैश्‍च सर्वैरहमेव वेद्यः’ (१५ । १५)‒ऐसा कहकर ‘अस्मत्’ पदसे भगवान्‌ने अपनेको ज्ञेय-तत्त्वके रूपमें जाननेके लिये कहा है ।

ईश्‍वर सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें स्थित है’ ईश्‍वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति’ (१८ । ६१)‒ऐसा कहकर ‘तत्’ पदसे और मैं ही सबके हृदयमें अच्छी तरहसे स्थित हूँ’ सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टः’ (१५ । १५)‒ऐसा कहकर ‘अस्मत्’ पदसे भगवान्‌ने अपनेको सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें स्थित बताया है ।

जो मनुष्य अन्तकालमें सर्वज्ञ, पुराण, अनुशासिता आदि विशेषणोंसे युक्त सगुण-निराकार परमात्माका चिन्तन करते हुए शरीर छोड़ता है, वह उस परम दिव्य पुरुषको प्राप्‍त होता है’ कविं पुराणं......पुरुषमुपैति दिव्यम्’ (८ । ९-१०)‒ऐसा कहकर तत्’ पदसे और जो मनुष्य अन्तकालमें मेरा स्मरण करते हुए शरीर छोड़ता है, वह मेरेको ही प्राप्‍त होता है’ ‘अन्तकाले च मामेव......मद्भावं याति’ (८ । ५)‒ऐसा कहकर ‘अस्मत्’ पदसे भगवान्‌ने अन्तसमयमें अपना स्मरण करनेवालेको अपनी प्राप्‍ति होनी बतायी है ।

तात्पर्य है कि गीतामें तत्’ और ‘अस्मत्’ पदसे एक ही परमात्माका वर्णन हुआ है ।जिसको प्राप्‍त होनेपर जीव-लौटकर संसारमें नहीं आते, वही मेरा परमधाम है’ ‘यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम’ (८ । २१), यद्‌गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम’ (१५ । ६)‒ऐसा कहकर ‘तत्’ और ‘अस्मत्’-पदवाची परमात्माकी एकता बतायी गयी है ।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !