Listen भगवान्के शरण होना सम्पूर्ण साधनोंका, सम्पूर्ण
उपदेशोंका सार है; क्योंकि भगवान्की शरण होनेके समान दूसरा कोई सुगम,
श्रेष्ठ और शक्तिशाली साधन नहीं है । अतः सम्पूर्ण साधनोंका
आश्रय छोड़कर भगवान्के शरण हो जाना ही जीवकी सबसे बड़ी शक्ति, सामर्थ्य है‒‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज इति शक्तिः ।’ भगवान्ने यह बात प्रणपूर्वक, प्रतिज्ञापूर्वक कही है कि जो मेरे शरण हो जायगा उसको मैं सम्पूर्ण
पापोंसे मुक्त कर दूँगा, उसका मैं उद्धार कर दूँगा । भगवान्की यह प्रतिज्ञा कभी इधर-उधर
नहीं हो सकती; क्योंकि यह कीलक है‒‘अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच इति कीलकम्
।’ ‒इस प्रकार ‘ॐ अस्य श्रीमद्भगवद्गीतामालामन्त्रस्य........इति कीलकम्’ का उच्चारण करनेके बाद ‘न्यास’ (करन्यास और हृदयादिन्यास) करना चाहिये । शास्त्रमें आता है कि देवता होकर अर्थात् शुद्ध,
पवित्र होकर देवताका पूजन, ग्रन्थका पठन-पाठन करना चाहिये‒‘देवो
भूत्वा यजेद्देवम्’ । वह देवतापन,
शुद्धता,
पवित्रता, दिव्यता आती है अपने अंगोंमें मन्त्रोंकी स्थापना करनेसे । जिस
मन्त्रका, जिस स्तोत्रका पाठ करना हो उसकी अपने अंगोंमें स्थापना करनी चाहिये;
उसकी स्थापना करनेका नाम ही
‘न्यास’ (करन्यास और हृदयादिन्यास) है । करन्यास‒ दोनों हाथोंकी दस अंगुलियों और दोनों हाथोंके सामने तथा पीछेके
भागोंको क्रमशः मन्त्रोच्चारणपूर्वक परस्पर स्पर्श करनेका नाम ‘करन्यास’ है; जैसे‒ (१) ‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक
इत्यङ्गुष्ठाभ्यां नमः’‒ऐसा कहकर दोनों हाथोंके अंगुष्ठोंका
परस्पर स्पर्श करे । (२) ‘न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत इति तर्जनीभ्यां
नमः’‒ऐसा कहकर दोनों हाथोंकी तर्जनी अंगुलियोंका परस्पर स्पर्श करे
। (३) ‘अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च इति मध्यमाभ्यां
नमः’‒ऐसा कहकर दोनों हाथोंकी मध्यमा अंगुलियोंका परस्पर स्पर्श करे । (४) ‘नित्यः
सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातन इत्यनामिकाभ्यां नमः’‒ऐसा कहकर दोनों हाथोंकी अनामिका अंगुलियोंका परस्पर स्पर्श करे
। (५) ‘पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रश इति कनिष्ठिकाभ्यां
नमः’‒ऐसा कहकर दोनों हाथोंकी कनिष्ठिका अंगुलियोंका परस्पर स्पर्श
करे ।
‘नानाविधानि
दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च इति करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः’‒ऐसा कहकर दोनों हाथोंकी हथेलियों और उनके पृष्ठभागोंका स्पर्श
करें ।
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